श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एकादशी का व्रत…“।)
अभी अभी # 249 ⇒ एकादशी का व्रत… श्री प्रदीप शर्मा
मैं एकपत्नी व्रतधारी हूं, और एकादशी का व्रत भी करता हूं। एकपत्नी व्रत और एकादशी व्रत, यानी दो दो व्रत एक साथ ! इस तरह, एक और एक मिलकर, मुझे दो नहीं, ग्यारह व्रतों का पुण्य प्राप्त हो जाता है।
व्रत उपवास और पूजा पाठ वैसे तो महिलाओं के लिए ही बने हैं, क्योंकि एक पति की तुलना में पत्नी ही अधिक धार्मिक और संस्कारशील होती है। पति पत्नी का धर्म का गठबंधन होता है, कोई भी पुण्य करे, बांट लेंगे हम आधा आधा।।
जब छोटे थे, तो घर में मां और बहन को व्रत उपवास करते देखते थे। हमें वही दाल रोटी और उनके लिए गमागर्म राजगिरे का हलवा और साबूदाने की खिचड़ी। मुंह ललचाता देख, हमें भी चखने को मिल ही जाता था। लेकिन दिन भर भूखा रहना हमारी मर्कट वृत्ति से मेल नहीं खाता था। हर आधे घंटे में उछलकूद के बाद हमारा मुंह अक्सर चलता ही रहता था।
व्रत उपवास मन और जिह्वा पर संयम तो रखते ही हैं, कुछ पुण्य भी आखिर मिलता ही होगा। थोड़ा बड़े हुए, तो जन्माष्टमी जैसा उपवास दिन भर स्वादिष्ट फलाहार के आधार पर निकाल ही लेते थे। लेकिन दूसरे दिन तबीयत से पूरी कसर निकाल लेते थे।।
आश्चर्य होता है, लोग कैसे पूरा सप्ताह व्रत उपवास पर ही निकाल लेते हैं। आज सोमवार तो कल मंगलवार, इधर चतुर्थी का व्रत तो उधर प्रदोष। गुरुवार और शनिवार भी नहीं छोड़ते। कभी नमक छोड़ रहे हैं तो कभी चावल। कितना पुण्य संचित हो जाता होगा, स्वास्थ्य कितना उत्तम और चित्त कितना शुद्ध हो जाता होगा।
कभी कभी मुझ जैसे सेवा निवृत्त पति का भी व्रत उपवास से पाला पड़ ही जाता है। जब कोई सगा संबंधी नहीं रहता, तो पण्डित जी अति भावुक क्षणों में एकादशी का संकल्प करवा लेते हैं। व्रत उपवास का मामला धार्मिक है, केवल धर्मपत्नी ही इस धर्मसंकट में हमारी मदद कर सकती है।।
एक दिन पहले से आगाह कर दिया जाता है, कल एकादशी है। दफ्तर में टिफिन नहीं ले जाओगे, और लंच के वक्त, किसी के भी टिफिन में मुंह नहीं मारोगे। सुबह हमारी तासीर के अनुसार तगड़ा फलाहार उपलब्ध कराया जाता है, इस हिदायत के साथ, दफ्तर से सीधे घर आओगे, होटल के चाय कचोरी, समीसे, पोहे पर सख्त प्रतिबंध।
हमारे जीवन की वह पहली एकादशी पिताजी को समर्पित थी। बहुत ही संजीदा मामला था। दफ्तर में पूरा मन काम में लगाया। उस दिन लोग खाने पीने की बातें जरा ज्यादा ही करते हैं। लंच में भूख तो लगनी ही थी, याद से, चुपचाप अकेले बाहर जाकर ठेले पर ही, तीन केले सूतकर आ गए।।
अब हम निश्चिंत थे। हमारा जीवन का पहला एकादशी का व्रत सफल होने जा रहा था। खुशी खुशी दफ्तर का काम निपटा ही रहे थे, कि एक मित्र तशरीफ लाए। बहुत दिनों बाद मिले थे। पुरानी आदत अनुसार बोले, लाल बाल्टी वाली कचोरी नहीं खिलवाओगे आज ? ना तो हम ना कर सके, और ना ही हम यह याद रख सके कि आज हमारा एकादशी का व्रत है। बस आव देखा ना ताव, कचोरी की दुकान पर दो कचोरी ऑर्डर कर दी।
पहला ग्रास तोड़ा ही था, कि अचानक याद आया, हे भगवान, आज तो एकादशी थी। मुंह तो जूठा हो ही गया था, सोचा, इसमें कचोरी की क्या गलती है। लेकिन पश्चाताप के कारण मन बहुत उदास हो गया और हमने शेष कचोरी का निष्ठुरतापूर्वक त्याग कर दिया। सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया।।
हारे हुए अर्जुन की तरह मुंह लटकाए घर लौटे।
पत्नियों की छठी इन्द्री बहुत तेज होती है। वह समझ गई, जरूर दाल में काला है। वह काफी संयत रही, बोली आपको अपनी गलती का तुरंत अहसास हो गया, यही बहुत हैं। यह मानकर चलें कि आपका व्रत खंडित नहीं हुआ है। आपके लिए साबूदाने की खिचड़ी और रबड़ी तैयार है। प्रायश्चित स्वरूप एक एकादशी और कर लेना।
वह दिन है और आज का दिन है। बिना किसी संकल्प अथवा पुण्य प्राप्ति की आस के, हर एकादशी पर केवल फलाहार का ही सेवन होता है। धर्मपत्नी के लिए भले ही वह व्रत हो, मेरे लिए वह भोजन में सिर्फ एक तरह का चेंज है। लेकिन अब मन पर इतना वश तो है ही कि लाल बाल्टी वाली कचोरी हो अथवा छप्पन और सराफे की चाट, हम कोई विश्वामित्र नहीं जो कोई मेनका हमको अपने व्रत से आसानी से डिगा दे। क्योंकि अब हम एकपत्नी व्रतधारी भी हैं, और एकादशी व्रत धारी भी।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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