श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मां की कविता…“।)
अभी अभी # 305 ⇒ मां की कविता… श्री प्रदीप शर्मा
मां पर कविता लिखना बड़ा आसान है, मां एक बहती हुई नदी है, जिसे लोग रेवा, नर्मदा अथवा गंगा, अलकनंदा और कालिंदी के नाम से भी जानते हैं। मां का उद्गम ममता से है। बच्चों का पालन पोषण करती, उनकी प्यार की प्यास बुझाती, आंसुओं को अपने में समेटे, सागर में जा मिलती है, जिससे सागर का जल भी खारा हो जाता है। मां का त्याग और समर्पण ही सीपी में सिमटा मोती है। सरिता का जल और मां के दूध में कोई फर्क नहीं, दोनों ही सृष्टि की जीवन रेखा हैं।
मैने मां का बचपन नहीं देखा, मेरा बचपन मां के साथ जरूर गुजरा है। काश, बुढ़ापा भी मां के साथ ही कटता, लेकिन फागुन के दिन चार रे, होली खेल मना ! जितना जीवन मां की छत्र छाया में गुजरा, वह फागुन ही था, जितनी होली होनी थी हो ली। अब होने को कुछ नहीं बचा।।
मां जब फुर्सत में होती थी, हम बच्चों को नदी की एक कविता
सुनाती थी, जो वह बचपन से सुनती चली आई थी। मां का सारा दर्द उस कविता में बयां हो जाता था। पूरी कविता मेरी प्यारी छोटी बहन रंजना के सौजन्य से प्राप्त हुई, जो उम्र में छोटी होते हुए भी, आज मुझे अपनी मां का अहसास दिलाती रहती है। मेरी मां एक तरफ, महिला दिवस एक तरफ।
आज बस, मां की कविता, मां स्वरूपा नदी को ही समर्पित ;
कहो कहाँ से आई हो,
गर्मी से घबराई हो,
आओ – आओ मेरे पास,
पानी पिओ बुझा ओ प्यास,
बैठो कुछ सुस्ता ओ तुम
अपना हाल सुनाओ तुम,
मुझसे सुन लो मेरा हाल,
देखो मेरी टेढ़ी चाल,
मुझे नदी सब कहते हैं,
दुःख – सुख मुझमें रहते हैं,
विन्ध्याचल में पैदा हुई,
पहले दुबली – -पतली रही,
गोद झील ने मुझको लिया,
उसने बड़ा सहारा दिया,
वहाँ बहुत दिन तक मैं रही,
बड़ी हुई तब आगे बढ़ी,
जब आयी प्यारी बरसात
कुछ मत पूछो मेरी बात,
उमड़ – घुमड़ बरसे घनघोर,
बेहद मुझमें आया जोर,
घर से निकली बाहर चली,
ऊंचे से नीचे को ढली,
धूमधाम से बहती चली,
गहरा शोर मचाती चली,
पेड़ बहुत से फूले फले,
झुक – झुक के मुझसे आ मिले,
अब मुश्किल है एक ही ओर,
पहले किया न उस पर ग़ौर,
वह भी तुम्हें सुनाती हूँ
आखिर मै पछताती हूँ,
अब समुद्र में गिरना है
नहीं वहाँ से फिरना है,
अब मिटता है मेरा नाम
अच्छा बहनों तुम्हें प्रणाम…
© श्री प्रदीप शर्मा
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