श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बुढापे की लाठी।)

?अभी अभी # 306 ⇒ बुढापे की लाठी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

walking stick

गिरधर कविराय ने लाठी में जितने गुण बताए हैं, उसमें उन्होंने न तो बुढ़ापे का जिक्र किया है और न ही किसी दृष्टिहीन व्यक्ति का।

यानी कविवर शायद लठैत किस्म के व्यक्ति रहे हों, अधिकतर प्रवास पर रहे हों और उन्हें कुत्तों से अधिक डर लगता हो। बैलगाड़ी के जमाने में कवियों की दृष्टि भी नदी नालों के आगे नहीं जा पाती थी। लाठी उनके लिए कभी एक हथियार था तो कभी मात्र एक सहारा।

भले ही युग बदल जाए, लेकिन इंसान कुत्ते के पीछे लठ लेकर दौड़ना नहीं छोड़ेगा।

आजकल लाठी का नहीं, छड़ी का युग है। बुढापे की लाठी का उपयोग अब उम्र के हर पड़ाव पर होने लग गया है। लाठी को अगर सहारा कहें तो मन को अधिक सुकून मिलता है। बूढ़े आजकल सीनियर सिटीजन कहलाते हैं और अंधे को तो आप दृष्टिहीन भी नहीं कह सकते, क्योंकि आजकल वे भी दिव्यांग परिवार के सदस्य हो गए हैं। अब इस दुनिया में कोई असहाय, वृद्ध, अपाहिज, मूक बधिर, अथवा सूरदास नहीं।।

कोई व्यक्ति नहीं चाहता, उसे कभी लाठी का सहारा लेना पड़े। पहले घर परिवार ही इतने बड़े होते थे कि बच्चे ही बुढ़ापे की लाठी हुआ करते थे। यह एक ब्रह्म सत्य है, जब बच्चे छोटे होते हैं, तो बड़े ही उनका सहारा होते हैं। बड़ों की उंगली पकड़कर ही तो पहले चलना सीखते हैं और बाद में अपने पांवों पर खड़े हो जाते हैं।

जिस तरह बचपन के बाद जवानी आती है, जवानी के बाद तो बुढ़ापा ही आना है। उंगली वही रहती है, लेकिन कंधे और कमर अब वैसी नहीं रहती। अगर किसी इंसान का सहारा नहीं, तो छड़ी मुबारक। हमें तो लाठी उठाए बरसों बीत गए।

राजनीति में कल जिसके पास सिर्फ लाठी थी, उसने आज भैंस भी पाल ली है।।

जिस तरह दिन और हालात बदलते हैं, उसी तरह बुढ़ापे और लाठी की परिभाषा भी बदल चुकी है। आखिर लाठी क्या है, आलंबन, विकल्प अथवा सहारा ही न ! और बुढ़ापा क्या है, बाल सफेद होना, दांत गिरना और आंखों से कम दिखाई देना। मुझे कम दिखाई देता है तो मैं लाठी नहीं ढूंढता, अपना चश्मा ढूंढता हूं। मेरा चश्मा ही मेरे लिए लाठी है।

बस इसी तरह सफ़ेद बाल की मुझे चिंता नहीं, रोज डाय करता हूं, बत्तीसी बाहर हुई नहीं कि, डेंचर मौजूद है। पेंशन क्या किसी लाठी से कम है। ये सब ही तो मेरे बुढ़ापे की असली लाठी हैं। जिसका पांव नहीं, वहां जयपुर फुट ही बुढ़ापे की लाठी का काम करता है। नाच मयूरी।।

लेकिन इतना सब होने के बावजूद मेरी असली बुढ़ापे की लाठी तो आज भी मेरी धर्मपत्नी ही है। वह कभी मेरा सहारा है तो कभी मैं उसका आलंबन।

कहीं कोई बेटा अपनी मां की लाठी है तो कहीं कोई पोता अपने दादा जी की लाठी।

जीवन के किस मोड़ पर हमें किस लाठी की आवश्यकता पड़ जाए, कुछ कहा नहीं जाता। सहारा लें, तो किसी को सहारा दें भी। लाठी में कर्ता भाव नहीं होता सिर्फ सेवा भाव होता है। लाठी ही सहारा है, सहारा ही ईश्वर है। एक सहारा तेरा।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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