श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रीच बिच ऊँच नीच…“।)
अभी अभी # 321 ⇒ रीच बिच ऊँच नीच… श्री प्रदीप शर्मा
अमीरी गरीबी के बीच तो ऊँच नीच हमने सुनी है, जातियों की ऊँच नीच भी कहां इतनी आसानी से जाती है, लेकिन आज फेसबुक की सबसे ज्वलंत समस्या रीच की है। अमीर को अगर अंग्रेजी में रिच कहते हैं तो पहुंच को रीच। जिनकी रीच पहुंचे हुओं तक होती है, वे जीवन में कहां से कहां पहुंच जाते हैं। ऊपर तक पहुंचने के लिए आज इंसान, जितना चाहो उतना, नीचे गिरने को तैयार है।
महंगाई हो या बेरोज़गारी, अशिक्षा हो अथवा अंधविश्वास, इनके घटने बढ़ने का भी एक ग्राफ होता है। जीवन में वैसे भी ऊंच नीच कहां नहीं होती। उतार चढ़ाव ही तो जीवन है। सुख दुख, हानि लाभ, यश अपयश तो जिंदगी में लगे ही रहते हैं।।
व्यक्तित्व की ऊंचाई ही इंसान को महान बनाती है और उसका घटिया आचरण ही उसे नीच बनाता है। वैसे घटिया शब्द उतना घटिया नहीं, जितना घटिया नीच शब्द है। वैसे भी नीच शब्द मेरी नजरों से इतना गिरा हुआ है कि मैं इसका प्रयोग कम ही करता हूं, लिखने में तो यदा कदा चलता है, लेकिन बोलने में, मैं कभी इस शब्द का प्रयोग नहीं करता। इस विषय में संत मेरे आदर्श हैं। संत अपने इष्ट के सामने स्वयं को ही दीन हीन, पतित और हीन ही मानते हैं, किसी और को नहीं। प्रभु मोरे अवगुण चित ना धरो।
आप भोजन कितना भी खराब हो, उसे घटिया तो कह सकते हैं, लेकिन नीच नहीं। शब्द में भी भाव होता है, छलिया, चितचोर और बैरी शब्द में जो प्रेम भरी उलाहना है, वह नीच शब्द में कहां। ऐसा प्रतीत होता है, इस शब्द का प्रयोग करते वक्त, व्यक्ति के मन में घृणा और क्रोध के भावों का संचार हो रहा हो।।
लेकिन जब इसी शब्द को ऊंच शब्द का संग मिल जाता है, तो वाक्य कितना सहज हो जाता है। ऊंच नीच कहां नहीं होती। शब्दों का भी आपस में सत्संग होता है। नीच से ही नीचे शब्द बना है। लेकिन एक मात्रा ने देखिए शब्द के भाव को कितना उठा दिया है। नीची नज़र कितनी शालीन होती है।
उठेगी तुम्हारी नजर धीरे धीरे।
बात फेसबुक पर पोस्ट की रीच की हो रही थी, और हम कहां पहुंच गए। रीच में तो खैर ऊंच नीच होती ही रहती है। अच्छी और रोचक पोस्ट को जब रीच नहीं मिलती, तो उसका भी मन उदास हो जाता है। सुबह पांच बजे की पोस्ट की ओर अगर कोई आठ बजे तक झांके ही नहीं, तो इससे तो बोरिया बिस्तर उठाना ही भला।।
बड़ा कलेजा लगता है साहब दिन भर आठ दस लाइक के साथ पूरा दिन काटने में। फेसबुक के बाज़ार में इतनी मंदी कभी नहीं हुई। जिनके पास दूसरा काम धंधा है वे तो तत्काल दुकान उठा जाते हैं, लेकिन कुछ लोग बेचारे आस लगाए बैठे रहते हैं ;
जाएं तो जाएं कहां।
समझेगा कौन यहां
पोस्ट की जुबां …..!!
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