श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बत्ती गुल…“।)
अभी अभी # 329 ⇒ बत्ती गुल… श्री प्रदीप शर्मा
आज एक अप्रैल है, और मेरे दिमाग की बत्ती गुल है। सुबह आंख खोलते जब कुछ नजर नहीं आया, तब पता चला, घर की बत्ती गुल है। खिड़की खोली तो तसल्ली हुई, पूरे मोहल्ले की बत्ती गुल है। मैं पेंशनभोगी हूं, कोई सुविधाभोगी नहीं। जो सुविधभोगी होते हैं, उनके घर की बत्ती कभी गुल नहीं होती, क्योंकि उनके घरों में इन्वर्टर और जनरेटर होते हैं। उनके जीवन में कभी अंधेरा नहीं होता ;
तुम्हें जिंदगी के उजाले मुबारक।
अंधेरे हमें आज रास आ गए हैं।।
जब भी घरों में बत्ती जाती थी, हम दीपक, चिमनी अथवा लालटेन जला लेते थे। तब घरों में स्टोव्ह भी घासलेट से ही जलते थे। हां पिताजी के पास एक टॉर्च जरूर होती थी।।
सुविधाओं के नाम पर हमारे पास पहले कैलकुलेटर आया और बाद में रेफ्रीजरेटर। बत्ती तब भी गुल होती थी, आज भी होती है। तब घंटों जाती थी, तो आदत पड़ जाती थी। आज दो मिनिट गर्मी बर्दाश्त नहीं होती, क्योंकि जालिम पंखा भी बिजली से ही चलता है।
होली और रंगपंचमी दोनों हो ली हैं, अब हमें तबीयत से पानी बचाना होना होगा, क्योंकि जल ही जीवन है। कूलर पहले बहुत पैसा मांगते हैं, और बाद में पानी। इंसान पैसा तो बहा सकता है, लेकिन पानी कहां से लाए। इसलिए समझदार लोग आजकल घरों में कूलर नहीं, एसी लगाते हैं, सुना है, वह पानी नहीं मांगता, सिर्फ पॉवर, यानी बिजली मांगता है।।
गर्मी में इंसान को जरा ज्यादा ही हवा पानी की जरूरत होती है। याद आती हैं बचपन की गर्मियों की छुट्टियां और ननिहाल।
वहां कहां हवा और पानी की कमी थी। आज शहरों से हवा भी हवा हो गई है और पानी भी हवा। कैसे गुजरेगी हमरी गर्मियां हो राम।
शुक्र है, बत्ती आ गई। आज अगर बत्ती वापस नहीं आती तो पूरा अप्रैल फूल ही हो जाता, क्योंकि अभी अभी कैसे लिख पाता। आप कैंडल लाइट डिनर तो कर सकते हैं, लेकिन मोमबत्ती के प्रकाश में लिख नहीं सकते। वैसे हमारा मोबाइल तो स्वयं प्रकाशित ही है। जली जली, दिमाग की बत्ती जली।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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