श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “\ पीठ पीछे /…“।)
अभी अभी # 338 ⇒ \ पीठ पीछे /… श्री प्रदीप शर्मा
अपनी तो हर आह एक तूफान है।
ऊपर वाला, जानकर अनजान है ;
ऐसा हो ही नहीं सकता, कि वह सर्वज्ञ घट घट वासी, हमारी आह की आहट तक नहीं सुन पाए।
सब कुछ उसके नाक के नीचे ही तो हो रहा है, पीठ पीछे नहीं, इसीलिए कवि प्रदीप भी व्यथित होकर कहते हैं ;
देख तेरे इंसान की हालत
क्या हो गई भगवान।
कितना बदल गया इंसान।।
लेकिन हम तो भगवान नहीं, इंसान हैं। हम सर्वज्ञ नहीं, यहां तो हमारे पीठ पीछे क्या क्या हो जाता है, हमें कुछ पता ही नहीं चलता। आखिर जानकर भी क्या कर लेंगे। किसी ने सही कहा है, परदे में रहने दो, पर्दा ना उठाओ।
घर में हमारे पीठ पीछे, दफ्तर में बॉस के नाक के नीचे, थाने में थानेदार के रहते और मन्दिर में भगवान की आंख के नीचे, बहुत कुछ चलता ही रहता है। कुछ बातें हमें पता रहती हैं, तो कुछ से हम अनजान रहते हैं।।
जब छोटे थे, तो पिताजी से बहुत डर लगता था। पिताजी अनुशासनप्रिय जो थे। उधर पिताजी घर से निकले, और इधर उनकी पीठ पीछे हम भाई बहनों की धींगामुश्ती शुरू। शाम को पिताजी के आने से। पहले ही हम अच्छे बच्चे बन जाते थे।
स्कूल कॉलेज की तो बात ही कुछ और थी। जब तक सर नहीं आते, क्लास हाट बाजार बनी रहती थी, और उनके आते ही पिन ड्रॉप साइलेंस। यानी आपस में खुसुर पुसुर चालू। सर ने आज काला चश्मा लगाया है, इंप्रेशन मार रहे हैं। उधर उन्होंने ब्लैक बोर्ड की ओर मुंह किया और इधर इशारेबाजी शुरू। लगता है, आज नहाकर नहीं आए, शर्ट भी कल का ही पहना हुआ है। वे पलटकर पूछते, क्या चल रहा है, सर कुछ नहीं, कोई जवाब देता। लेकिन वे सब जानते थे, पीठ पीछे क्या चल रहा है। आखिर सास भी कभी बहू थी।।
परीक्षा में नकल कभी खुले आम नहीं होती। एक निगाह परीक्षक पर, और एक निगाह नकल पर, आखिर सब काम पीठ पीछे ही तो करना होता है। कुछ शिक्षक दयालु किस्म के होते थे, कुर्सी पर आंख बंद करके बैठे रहते थे, राम की चिड़िया, राम का खेत। और पूरी क्लास भरपेट नकल कर लेती थी।
वह दादाओं का जमाना था। दादाओं को नकल की पूरी छूट रहती थी, क्योंकि वे ढंग से नकल भी नहीं कर सकते थे। वैसे उन्हें भी कहां पास होने की पड़ी रहती थी। सब बाद में नेता, मंत्री, वकील बन गए और बचे खुचे पुलिस में चले गए।।
किसी के पीठ पीछे बात करने में वही सुख मिलता है, जो निंदा में मिलता है। वैसे भी पीठ पीछे अक्सर बुराई ही होती है, खुलकर तारीफ तो आमने सामने ही होती है। मालूम है, मिसेज गुप्ता आपके बारे में क्या कह रही थी। क्या करें, बिना बताए खाना जो हजम नहीं होता।
कुछ हमारी मर्यादा है, कुछ लोकाचार है, इसलिए कुछ काम पीठ पीछे ही किए जाते हैं। खुले आम रिश्वत नहीं दी जा सकती। जमीन और मकानों के सौदे होते हैं, रजिस्ट्री भी होती है। कितना नम्बर एक, कितना नंबर दो।
रजिस्ट्रार महोदय सब जानते हैं, पीठ पीछे का खेल।।
हमने तो कुछ ऐसे सज्जन पुरुष भी देखे हैं, जो लोगों की पीठ पीछे तारीफ करते हैं। पीठ पीछे कई नेक काम भी होते हैं, जिनका हमें पता ही नहीं चलता।
कौन आजकल नेकी कर, दरिया में डालता है।
मुख में राम, बगल में छुरी, कहावत यूं ही नहीं बनी। अच्छाई का ढोंग, और पीठ पीछे काले कारनामे, शायद इसे ही आज की दुनिया में संभ्रांत समाज कहते हैं। अब कोई ऐसी काजल की कोठरी नहीं, जिसमें कोई काला हो, इधर शरणागति, उधर सर्फ की सफेदी। पीठ पीछे नहीं, सब कुछ खुला खेल फरुखाबादी।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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