श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ये सब्जी वालियाॅं…“।)
अभी अभी # 340 ⇒ ये सब्जी वालियाॅं… श्री प्रदीप शर्मा
हमारे रोज के भोजन में सब्जी का बड़ा महत्व है। मुझे सब्जी मंडी और सब्जी मार्केट से विशेष प्रेम है। हरे हरे खेत अब कहां शहरों में नसीब होते हैं, चलो कुछ समय हरी भरी तरकारियों के बीच ही गुजारा जाए। आज भी सुबह सुबह दूध और अखबार वाले के बाद सब्जी वाले की ही आवाज सुनाई देती है।
घर के पास ही सब्जी मार्केट और फ्रूट मार्केट था। तब मैं मां का असिस्टेंट था, साथ में झोला और पैदल मार्च। सड़क के दोनों ओर ठेले अथवा जमीन पर सब्जी वालों की सजी धजी दुकानें, कहीं सब्जी वाला, तो कहीं सब्जी वाली।।
तब कहां घरों में फ्रिज था। रोजाना ताजी सब्जी लाना और बनाना। सभी सब्जी वाले परिचित। अपनेपन में एक अधिकार भी होता है। हर दुकानदार की इच्छा होती थी, कि मां सब्जी उसी से ले। मां के सरल और मृदु स्वभाव के कारण हमें राम राम के अभिवादन के साथ गार्ड ऑफ ऑनर दिया जाता था। मां कहीं से भी सब्जी लेती, कोई बुरा नहीं मानता, क्योंकि मां सबसे हालचाल पूछती रहती थी, बातचीत करती रहती थी। मोल भाव का तो सवाल ही नहीं था।
कुछ सब्जी वालियों को मां नाम से जानती थी। अक्सर उनका पूरा परिवार ही इस पेशे से जुड़ा रहता था। कहीं अम्मा, कहीं बहू तो कहीं बेटी। लगता था सब्जी की सौदेबाजी नहीं, रिश्तों का मेलजोल हो रहा है। मेरी निगाह सस्ती महंगी की ओर रहती थी, लेकिन मां कहती थी, मेहनत मजदूरी करते हैं, इन्हें दो पैसे ज्यादा देने में हमारा क्या जाता है।
सब्जी के साथ मुफ्त में धनिया मिर्ची के साथ अगर थोड़ा प्रेम और सम्मान भी मिल जाए, तो सब्जी अधिक स्वादिष्ट बनती है।।
अब न तो मां है और ना ही पहले जैसी हरी भरी ताजी सब्जियां। मां की जगह आजकल पत्नी का साथ होता है, सब्जियों की गुणवत्ता में भले ही कमी आई हो, लेकिन वही सब्जी वाले और वही सब्जी वालियां। सिर्फ चेहरे बदले हैं, पीढ़ियां बदली है, समय और जगह बदली है।
पत्नी का स्वभाव थोड़ा थोड़ा मां जैसा होता जा रहा है। वह भी इन सब्जी वालियों में घुल मिल जाती है, कहां की हो, कितने बच्चे हैं। बहुत जल्द इंसान खुल जाता है, सुख दुख की बात करने लग जाता है।।
कुछ लोग इन सब्जी वालियों से भाव ताव भी करते हैं और नोंक झोंक भी। चोइथराम मंडी में टमाटर बीस रूपये किलो है और तुम अस्सी में दे रही हो, हद होती है लूट की। आप नहीं जानते, दिन भर में कितना कमा लेते हैं ये लोग। यहां लड़ाई झगड़ा भी होता है और मारपीट भी। यानी असली सब्जी मार्केट।
डी मार्ट, रिलायंस फ्रेश और बिग बास्केट से सब्जी खरीदने वालों की दुनिया ही अलग होती है, वहां न मोल भाव, और ना ही नगद भुगतान। उनकी दुनिया में ना गरीबी प्रवेश करती है और ना ही वे कभी गरीबों की बस्तियों में पांव रखते हैं। उनके लिए हर मेहनत मजदूरी करने वाला गरीब, मुफ्त राशनखोर, परजीवी है, समाज पर बोझ है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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