श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गाँठ।)

?अभी अभी # 356 ⇒ गाँठ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

दो रस्सियों को जोड़ने के लिए गाँठ बाँधी जाती है। स्काउट के प्रशिक्षण में खूंटा गाँठ,लघुकर गाँठ, जुलाहा गाँठ, और डॉक्टर गाँठ प्रमुख होती हैं। नदी नालों को पार करना,पहाड़ों पर चढ़ना और दुर्गम स्थलों पर रस्सी के सहारे रास्ता तय करने में,इन गाँठों का उपयोग होता है। जो आसानी से खुल जाए, वह गाँठ नहीं कहलाती।

जब रिश्तों की डोर कमज़ोर होने लगती है,तो टूटने से बचाने के लिए गाँठ बाँधना ज़रूरी हो जाता है। रिश्तों में एक बार गाँठ पड़ने पर विश्वास खत्म हो जाता है। स्काउट गाँठ पर भरोसा करना सिखलाता है, रिश्तों को जोड़ना स्काउटिंग का पहला कर्तव्य है। ।

हल्दी,अदरक और कुछ नहीं,केवल गाँठ ही है। इन दोनों गाँठों में औषधीय गुण हैं। कच्ची हल्दी अगर देखने में अदरक जैसी लगती है,तो अदरक सूख कर सौंठ हो जाती है। जिस गोभी को हम चाव से खाते हैं,उसकी भी एक किस्म गाँठ गोभी कहलाती है। अरबी जिसे यूपी में घुइयां कहते हैं,को छीलना इतना आसान नहीं होता। शलजम जो तेज़ी से होमोग्लोबिन बढ़ाता है, एक तरह की गांठ ही तो है।

हमारे मन में भी गाँठें होती हैं !अवसाद,पूर्वाग्रह और दुराग्रह,ईर्ष्या, जलन,डाह के अलावा अपने विचारों को खुलकर न व्यक्त करने की दशा में कुछ ऐसी ग्रंथियों का विकास होने लगता है जो न केवल मन,अपितु शरीर को भी नुकसान पहुंचाने लगता है। शरीर के किसी भी भाग में गाँठ का होना,किसी गंभीर समस्या को जन्म दे सकता है। इसे इलाज द्वारा निकालना ज़रूरी हो जाता है। ।

मन का निर्मल होना,कई पुरानी उलझी गाँठों को सुलझा देता है। किसी को माफ करना आसान होता है,किसी से माफ़ी माँगना बड़ा मुश्किल। किसी को ज़िन्दगी भर माफ़ नहीं करने की कसम,मन में कितनी बड़ी गाँठ पैदा कर सकती है। हमारे व्यवहार से शायद हमने भी किसी के मन में ऐसी गाँठें पैदा कर दी हों।

गाँठें बुरी हैं, बहुत बुरी ! मन और शरीर की गाँठों का निदान,ज़रूरी है। एक प्रेम का धागा ही काफी है किसी को अटूट बंधन में बाँधने के लिए। कच्चे धागे अच्छे हैं,गाँठ बहुत बुरी। ।

अटलजी की एक कविता है :

आओ, मन की गाँठें खोलें

यमुना तट, टीले रेतीले,

घास फूस का घर डंडे पर

गोबर से लीपे आँगन में,

तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर

माँ के मुँह से दोहे चौपाई

रस घोलें

आओ मन की गाँठें खोलें …

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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