श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तिल धरने की जगह।)

?अभी अभी # 359 ⇒ तिल धरने की जगह? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारी भाषा इतनी संपन्न है कि हम इसके साथ कलाबाजियां भी कर सकते हैं, और खिलवाड़ भी। अलंकारों, मुहावरों, लोकोक्तियों की तो छोड़िए, अतिशयोक्ति तो इतनी कि, बस पूछिए मत।

पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ था, कहीं तिल धरने की भी जगह नहीं थी। वैसे तो श्रोता खचाखच के प्रयोग से ही निहाल हो गया था, बेचारा एक तिल, यानी तिल्ली का दाना, अब उसके रखने की जगह भी हॉल में नहीं बची। हुई न यह, तिल से ताड़ बनाने वाली बात।।

अब सबसे पहले तो हॉल में आपको तिल लाने की आवश्यकता ही क्या थी। चलो अगर आप एक तिल का दाना ले भी आए, तो उसे कहां रखकर लाए थे, किसी माचिस की डिबिया में अथवा भानुमति के पिटारे में। अगर लाते तो पर्स में तिल गुड़ के दो तीन लड्डू ही ले आते आराम से खा तो सकते थे। खुद भी खाते और पड़ोसी श्रोता को भी ऑफर कर देते।

वह तो गनीमत है कि वहां कोई सिक्योरिटी चेक अथवा हाय अलर्ट नहीं था वर्ना एक तिल हॉल में लाना आपको बहुत भारी पड़ जाता। कहीं मेटल डिटेक्टर आपकी तिल में कोई खुफिया माइक्रो चिप अथवा सेल्यूलर बम, ना ढूंढ निकालता। ऐसे गैर जिम्मेदाराना, बेवकूफी भरे बयानों से बचकर रहा कीजिए, साइबर और डिजिटल क्राइम का जमाना है।।

हो सकता है, दुश्मनों ने टाइम बम की तरह कोई विस्फोटक तिल बम ईजाद कर लिया हो, और आतंकवाद निरोधक दस्ता, खुफिया रिपोर्ट के आधार पर, वहां पहले से ही मौजूद हो। और आपकी यह तिल तक रखने की जगह नहीं, वाली बात उन्होंने सुन ली हो। पहले तो आप अंदर, आतंकवादी और देशद्रोही गतिविधियों में लिप्त पाए जाने के आरोप में। तिल को तिल बम बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। पहले पूरा हॉल खाली कराया जाता, आपकी तिल तिल की तलाशी ली जाती, हॉल का चप्पा चप्पा छान मारा जाता, और अगर कहीं गलती से, तिल गुड़ वाला तिल का टुकड़ा किसी कुर्सी के नीचे से बरामद हो जाता तो क्या उसे हाथ कोई लगाता।

उसे सुरक्षित तरीके से कब्जे में ले लिया जाता, प्रेस, पत्रकार और इलेक्ट्रिक मीडिया के सौजन्य से आपकी तस्वीर भी सनसनीखेज तरीके से कैद कर ली जाती। उधर कोई भी आतंकवादी संगठन अपनी पब्लिसिटी के लिए आपको उस गिरोह का सदस्य घोषित कर देता।।

क्या यह सब बेसिर पैर की बातें हैं अथवा अतिशयोक्ति की पराकाष्ठा ! तो बताइए, तिल की बात शुरू किसने की थी। खुद को आसानी से बैठने की जगह मिल गई थी, लेकिन नहीं, इन्हें अपने तिल को रखने की भी जगह चाहिए थी। अब तिल तिल पुलिस कस्टडी में सड़ो।

ऐसी बददुआ सुबह सुबह हम अपने दुश्मन को भी नहीं देते। बस एक तिल की बात को लेकर दिमाग का दही हो गया था, तो हमने अनजाने में ही रायता फैला दिया।।

सुबह सुबह इस गुस्ताखी के लिए हम आपसे करबद्ध माफी मांगते हैं, लेकिन आपसे गुजारिश है, तिल देखो, तिल की साइज देखो, पहले अपने मुंह में तिल धरने की जगह तो तलाशो, फिर उसके बाद मुंह खोलो। अतिशयोक्ति सदा बुरी ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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