श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चुप्पी और मौन ।)

?अभी अभी # 368 ⇒ चुप्पी और मौन ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

चुप्पी और मौन (silence & taciturnity)

“होठों को सी चुके तो जमाने ने ये कहा,

ये चुप सी क्यूं लगी है, अजी कुछ तो बोलिए “

जहां कहने को तो बहुत हो, लेकिन होठों पर ताला लगा हो, ऐसी चुप्पी बड़ी जानलेवा होती है। जहां बोलने से मना कर दिया जाए, चुप रहने की हिदायत दी जाए, वहां अक्सर खुसुर फुसुर अवश्य चला करती है।

चुप्पी और शांति का अनुभव हम सबने कक्षा में लिया है। जब तक कक्षा में सर नहीं आते, बातचीत शोर और कोलाहल का रूप धारण कर लेती है और जैसे ही मास्टर जी ने प्रवेश किया, सबके बोलने पर एकदम ब्रेक लग जाता है। कक्षा में एकदम पिन ड्रॉप सायलेंस।।

लेकिन यह भी स्थायी नहीं होता। आपस में बातचीत कौन नहीं करता। वह उम्र ही बोलने की होती है। उधर खिसक, पूरी जगह घेरकर बैठी है। लगता है, आज नहाकर नहीं आई। देख, चोटी कैसे बिखर रही है। वह कुछ जवाब दे, उसके पहले ही पकड़े जाते हैं। एक चॉक फेंककर उन्हें आगाह किया जाता है। तेरे को तो बाद में देख लूंगी।

मौन हमारे स्वभाव में नहीं। आखिर क्या है मौन। क्या सिर्फ चुप रहना ही मौन है। चुप्पी को साधना पड़ता है, और मौन धारण करना पड़ता है। चुप रहने का स्वभाव ही मौन है।।

मौन का संबंध हमारे भीतर से होता है, जबकि चुप्पी बाहर घटित होती है। मौन का अर्थ अन्दर और बाहर से चुप रहना है। चुप्पी में बहुत कुछ कहने को रह जाता है। जब कि मौन में मन में केवल शांति होती है। शायद विचार गहरी नींद में सोये रहते हों।

हम भाई बहन स्टेच्यू का खेल खेला करते थे। बिना सूचना दिए और बिना आगाह किए, एकदम स्टेच्यू ! जैसे हो, वैसे एकदम बुत बन जाओ।

न हिलना, न डुलना, न बोलना न चालना। खेल खेल में अनुशासन, चंचलता में अस्थाई विराम।।

ध्यान भी एक तरह से मौन का अभ्यास ही है। एकांत में आप किससे बोलोगे। चित्त तो फिर भी भटकता है, चलिए आंखें मूंदकर देखते हैं। क्या आंख मूंदकर भी कुछ दिखता है, अजी बहुत कुछ दिखता है। सपने अक्सर आंख मूंदकर ही देखे जाते हैं।

स्वप्न दिवा भी होते हैं, जो खुली आंखों से भी देखे जाते हैं ;

तोरा मन बड़ा पापी सांवरिया रे।

मिलाए छल बल से नजरिया रे।।

साहिर इसीलिए कहते हैं, मन रे, तू काहे ना धीर धरे। चुप्पी से मौन भला होता है, और मौन से भी दिव्य मौन श्रेष्ठ होता है। ऐसा मौन किस काम का, जहां स्लेट पर लिख लिखकर और उंगलियों के इशारों और हाव भाव से मन के उद्गार प्रकट किए जाएं।

मौन, एकांत और ध्यान की ही एक पद्धति का नाम विपश्यना है। जहां आपस में बोलने चलाने की भी मनाही होती है। बिना चुप्पी साधे भी कभी मौन सधा है। कहीं भी साधें, जहां बोलना आवश्यक हो, वहीं बोलें, अन्यथा चुप्पी साधें।

साधना ही मौन है, मौन एक अनुशासन है, अपने मन पर अपना शासन है।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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