श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अपना देस …“।)
अभी अभी # 375 ⇒ अपना देस … श्री प्रदीप शर्मा
हमारे राष्ट्र में महाराष्ट्र भी है और गुजरात प्रदेश में सौराष्ट्र भी ! एक देश के वासी होते हुए भी सबका अपना अपना देस है। बरसों से लोग रोजी रोटी के लिए, देस को छोड़ परदेस जाते रहे हैं। जिसे हम आज प्रदेश कहते हैं, उसका ही अपभ्रंश है यह देस।
जब लड़की की शादी के बाद बिदाई होती है तो अमीर खुसरो का यह विदाई गीत महिलाएं गाती हैं ;
काहे को ब्याहे बिदेस,
अरे लखिय बाबुल मोरे,
काहे को ब्याहे बिदेस
आखिर तब देस होता ही कितना छोटा था !
ये गलियां ये चौबारा
यहां आना ना दोबारा।
पनघट और अमराई और सावन के झूले बचपन के संगी साथी जब छूटते थे, तो मन बरबस कह उठता था;
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना
ये घाट, ये बाट कहीं भूल न जाना।
निरगुन कौन देस को बासी !
देस वह स्थान है, जहां हम पैदा हुए, बड़े हुए, खेले कूदे। हम जिस नदी में नहाए, हमने जिस कुएं का पानी पीया, ज़िन्दगी भर आप चाहो तो उसे भूल जाओ, आखरी समय वह जरूर याद आता है।
ऐसा माना गया है कि जब हम देह त्यागते हैं तो हमें अपने बचपन की तस्वीरें खुली आंखों से दिखाई देती हैं। हमारे परिवार के वे वरिष्ठ जन, जिनकी गोद में आपने बचपन गुज़ारा है, आपको पुकार रहे हैं। लोग समझते हैं, आप भावुक होकर प्रलाप कर रहे हैं। लेकिन अंतिम समय में अतीत ही साथ जाता है, वर्तमान से नाता टूट जाता है।
उड़ जाएगा हंस अकेला।
जग दर्शन का मेला। ।
हम कितना भी देश विदेश में प्रवास कर लें। रोजी रोटी किस इंसान को कहां फेंकती है, कुछ कहा नहीं जाता। होते हैं कई बदनसीब, जो वापस अपने देस नहीं लौट पाते। जिन्हें अपनी माटी से लगाव होता है, वे हमेशा उस पल की तलाश में रहते हैं, जब वे एक बार फिर अपने जन्म स्थान के दर्शन कर लें।
माटी से यह लगाव, माटी की उस खुशबू का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। आखिर यह तन ही तो हमारा वतन है। जिस माटी से पैदा हुआ है, उसे उसमें ही मिल जाना है। हम इस माटी का कर्ज चुका पाएं, उसे अंतिम प्रणाम कर पाएं, शायद इसीलिए माटी का मोह हर अमीर गरीब को, मजदूर किसान को अंतिम समय में, सैकड़ों मील दूर, अपने देस की ओर खींचता है, आकर्षित करता है। ।
आप एक नन्हे बालक से उसका खिलौना छीनकर देखिए। उसे पैसे का, सोने चांदी का लालच देकर देखिए। एक मिट्टी के खिलौने में उसकी जान बसी है। वह उसके साथ उठता, बैठता, सोता खाता है। उसका खिलौना टूटता है, वह मचल जाता है। उसकी दुनिया बिखर जाती है।
इंसान की दुनिया भी जब एक बार बिखर जाती है, तो उसे समेटना इतना आसान नहीं होता। आज हर जगह सब बिखरा बिखरा सा है। इसे समेटना, संभालना, संवारना बहुत ज़रूरी है। केवल भरोसा और विश्वास ही हमें वापस अपनी माटी से जोड़ सकता है, हमें बिखरने से बचा सकता है। शायद तब ही जो दर्द की सरगम हमें सुनाई दे रही है वह थमेगी। कहीं कोई अभागा फिर यह दर्द भरा गीत गाने को विवश ना हो ;
हम तो चले परदेश
हम परदेसी हो गए
छूटा अपना देस
हम परदेसी हो गए
ओ रामा हो ….!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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