श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विषय…“।)
अभी अभी # 382 ⇒ विषय … श्री प्रदीप शर्मा
अगर विचार ही शून्य हों, तो विषय कहां से सूझे। सुबह परीक्षा तो देने जा रहे हैं, लेकिन पेपर किस विषय का है, यह ही पता नहीं, तो परीक्षा क्या खाक देंगे। बिना तैयारी परीक्षा नहीं दी जाती। लेकिन जहां जीवन में रोज परीक्षा चल रही हो, वहां बिना प्रश्न पत्र और बिना विषय के ही परीक्षा देनी पड़ती है।
अभी अभी मेरी रोज परीक्षा लेता है, आज भी ले रहा है। जब तक विषय वस्तु समझ नहीं पाता, विषय प्रवेश कैसे करूं। मुझे तो लगता है, यह विषय शब्द ही विष से बना है, क्योंकि जहां विषय है वहां विकार अवश्य ही होगा। जितना संबंध विषय का विकार से है, उतना ही वासना से भी है।।
अगर इस दृष्टिकोण से विषय सूची बनाई जाए तो उसमें विषधर और विषकन्या भी शामिल हो जाएंगे। विषपान तो केवल विश्वेश्वर नीलकंठ महादेव ही कर सकते हैं, हां विष वमन के लिए राजनीति के विषधर अवश्य मौजूद हैं।
तो क्या विषयांतर नहीं किया जा सकता। विषय में रहते हुए विषयांतर इतना आसान नहीं होता।
ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्राप्त रस, पदार्थ या तत्त्व (जैसे—गंध और स्वाद का विषय)।
आधारिक कल्पना (जैसे अभी अभी का विषय क्या होगा)
अध्ययन की सामग्री, सब्जेक्ट आदि।
विवेचन, विचार, मैटर ..
वैसे विषय का शाब्दिक अर्थ, ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्राप्त रस, पदार्थ या तत्त्व (जैसे—गंध और स्वाद का विषय) है। विषय का एक और व्यावहारिक अर्थ
आधारिक कल्पना अर्थात् theme और सब्जेक्ट है।।
संसार के सभी विषयों में तो सुख दुख हैं। जीव दुख से भागना चाहता है, उसे सिर्फ सुख की चाह है। सुख के विषय उसे प्रिय हैं,
अनंत सुख वह जानता नहीं, इसलिए विषय भोग में उलझा रहता है। नीरस जीवन किसे अच्छा लगता है, रसना बिना जीवन में रस ना। विषयासक्त और अनुरक्त से बेहतर स्थिति होती है, एक विरक्त की। विषय में विकार है, विरक्त में कोई विकार नहीं। सूरदास हमारी स्थिति बेहतर जानते हैं, शायद इसीलिए इस विषय को एक खूबसूरत मोड़ देकर कहते हैं ;
मेरो मन अनत कहां सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै॥
कमलनैन कौ छांड़ि महातम और देव को ध्यावै।
परमगंग कों छांड़ि पियासो दुर्मति कूप खनावै॥
जिन मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यों करील-फल खावै।
सूरदास, प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै॥
© श्री प्रदीप शर्मा
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