श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गंध, इत्र और परफ्यूम…“।)
अभी अभी # 478 ⇒ गंध, इत्र और परफ्यूम… श्री प्रदीप शर्मा
हमारी पांच ज्ञानेंद्रियों में से एक प्रमुख इन्द्री घ्राणेन्द्रिय भी है, जिसे हम आम भाषा में सूंघने की शक्ति अर्थात् sense of smell भी कहते हैं। गंध प्रमुख रूप से दो ही होती है, सुगंध और दुर्गन्ध ! फूलों में प्राकृतिक सुगंध होती है।
वसंत ऋतु में, पंडित भीमसेन जोशी के शब्दों में अगर कहें तो – केतकी गुलाब, जूही, चंपक बन फूले।
हम किसी भी खाद्य पदार्थ को पहले देखते हैं, फिर सूंघते हैं और उसके बाद ही चखते हैं। खुशबू दिखाई नहीं देती, सुनाई नहीं देती, लेकिन जब हवा में फैलती है तो मस्त कर देती है, मदमस्त कर देती है। एक फूल की गंध ही तो भंवरे को बाध्य करती है कि वह उसके आसपास मंडराया करे, उसका रसपान किया करे।।
गंधमादन अथवा सुमेरु पर्वत कैसा होगा, हम कल्पना भी नहीं कर सकते लेकिन जिन लोगों ने फूलों की घाटी देखी है, उन्हें उसका कुछ कुछ अंदाज हो सकता है। गंध जो आपको पागल कर दे, सुगंधित वायु युक्त मेरु ही तो शायद सुमेरु पर्वत होगा। कोई आश्चर्य नहीं, संजीवनी वटी की जगह पूरा पर्वत ही उठा लेने वाले पवनपुत्र हनुमान का ही वहां वास हो। हम तो हवाखोरी के लिए अल्मोड़ा नैनीताल, शिमला मसूरी, ऊटी मनाली और कोड़ई कनाल ही चले जाएं तो बहुत है।
वन, पर्वत और पहाड़ जहां मनुष्य का आना जाना नहीं के बराबर है, समझ में नहीं आता, वहां की गंदगी और दुर्गंध कौन साफ करता है। सभी हिंसक जीव वहां रहते हैं, जो आजादी से खुले में शौच करते हैं। वहां कोई स्वच्छता अभियान नहीं चलता, फिर भी वहां का पर्यावरण शुद्ध रहता है, हर तरफ हवा में स्वास्थ्यवर्धक ताजगी रहती है, इकोलॉजिकल बैलेंस रहता है और ओजोन की परत भी मजबूत रहती है। और जहां एक बार इस पढ़े लिखे इंसान के पांव वहां पड़े, जंगल में मंगल हो जाता है। मनुष्य अपने साथ धूल, धुआं और प्रदूषण वहां ले जाता है।
जो कभी प्राकृतिक जंगल था, धीरे धीरे कांक्रीट जंगल में परिवर्तित हो जाता है, जहां के आलीशान सभागारों और वातानुकूलित ऑडिटोरियम में पर्यावरण की सुरक्षा पर चिंता व्यक्त की जाती है, सेमिनार आयोजित किए जाते हैं।।
हमारी नाक हमेशा अपने चेहरे पर एक जगह ही होती है, फिर भी ऊंची नीची हुआ करती है। वह खुशबू और बदबू में अंतर पहचानती है। जब कोई शायर, किसी सुंदर युवती के बारे में, यह कहता नजर आता है, खुशबू तेरे बदन सी, किसी में नहीं नहीं, तो हम एकाएक यह समझ नहीं पाते कि उस भागवान ने कौन सी इंपोर्टेड परफ्यूम लगाई है।
पसीने की बदबू के अलावा हमारा लहसुन प्याज वाला तामसी भोजन, और ऊपर से मादक पदार्थों का सेवन करने के बाद, बस एक ऐसे पावरफुल परफ्यूम ही का तो सहारा होता है, जिसके कारण पार्टियों में खुशबू और रौनक फैलाई जाती है। किसी भी आयोजन के लिए पहले ब्यूटी पार्लर का श्रृंगार और बाद में परिधान पर देहाती भाषा में फुसफुस वाला परफ्यूम छिड़कने के बाद जो समा बंधता है, वह देखने लायक होता है।।
एक समय था जब हमारे सभी मागलिक कार्यों में जलपान के साथ इत्रपान की भी व्यवस्था होती थी। इत्र की शीशी से इत्र निकालकर आगंतुक मेहमानों के शरीर पर लगाया जाता था और गुलाब जल छिड़का जाता था। जीवन में अगर खुशबू नहीं तो खुशी नहीं।
मधुवन खुशबू देता है। हमारी पूजा, आराधना में भी धूप अगरबत्ती और सुगंधित पुष्पों का समावेश है। जीत हो तो पुष्पहार, जन्मदिन हो तो गुलदस्ता और मुखशुद्धि हो तो पान में केसर, इलायची, गुलकंद। खुशबू, खुशी का पर्याय है। कितना अच्छा हो, हमारी खुशी वास्तविक खुशी हो, कृत्रिम नहीं, और खुशबू भी प्राकृतिक ही हो, एक ऐसी तेज और ओजयुक्त जिंदगी, जिसमें बच्चों सी चहक और महक हो ;
ॐ त्र्यंबकम यजामहे सुगंधिं पुष्टि वर्धनम्।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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