श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पिता का घर…“।)
अभी अभी # 489 ⇒ पिता का घर… श्री प्रदीप शर्मा
मेरी मां का मायका अगर मेरा ननिहाल हुआ तो मेरी पत्नी का मायका मेरा ससुराल। मेरे पिता का घर तो खैर मेरा ही हुआ लेकिन उनका भी एक पैतृक गांव था जिसे वे बचपन में ही छोड़कर अपनी बड़ी बहन, यानी मेरी बुआ के घर इंदौर आ गए थे। हमारा पैतृक गांव सेमरी हरचंद था, जो इंदौर और पचमढ़ी सड़क मार्ग पर होशंगाबाद और सोहागपुर के बीच स्थित है।
सेमरी से २१ km की दूरी पर ही ग्राम बाबई स्थित है। हमारे काका, बाबा का भी पैतृक स्थान सेमरी हरचंद और बाबई ही रहा। बाबई, एक भारतीय आत्मा, दद्दा माखनलाल चतुर्वेदी का भी जन्म स्थान रहा है। इसीलिए आजकल बाबई तो माखन गांव भी कहा जाने लगा है। ।
सेमरी हरचंद के हमारे घर के सामने एक पंचायती मंदिर था, जहां के पुजारी कभी हमारे दादा परदादा ही थे। जब कभी पिताजी गांव जाते थे तो वहां से उनकी चिट्ठीयां आया करती थी जिन पर नाम के साथ पता लिखा रहता था, पंचायती मंदिर के सामने, सेमरी हरचंद, जिला होशंगाबाद।
पिताजी के बड़े भाई, जिन्हें हम बाबा साहब कहते थे, के देहावसान के पश्चात् हमारे पिताजी अधिकांश समय सेमरी में ही रहे।
वहां उन्होंने पुराने मकान का जीर्णोद्धार किया और उसका कुछ हिस्सा अपने पास रखकर शेष को किसी कोऑपरेटिव बैंक को किराए से दे दिया। मेरी अपने पुश्तैनी गांव में कोई रुचि नहीं थी, क्योंकि तब गांव के अधिकांश लोग बीड़ी पीते थे। या कहें मुझ में एक शहरी के संस्कार पड़ चुके थे। ।
पिताजी के बाद हमने गांव की जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा और मकान भी कौड़ियों के मोल बेच दिया, क्योंकि घर का कोई भी सदस्य इस स्थिति में नहीं था कि वह गांव में रहकर मकान की देखभाल कर सके।
आज मेरे ननिहाल में भी कोई नहीं और मेरे पैतृक गांव में भी हमारा नाम लेने वाला कोई नहीं। एक बार शहर से जुड़ने के बाद तो मानो हम अपनी जड़ से ही उखड़ गए। अपनी पुरानी पहचान खो देने के बाद हम अपने आप में ही अजनबी हो गए हैं। गांव के स्वर्ग को छोड़कर शहर के जंगल में जीना आज हमारी मजबूरी भी है और एक कड़वा सच भी।।
खुशनसीब हैं वे लोग जो आज भी अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं। उनका अपना ननिहाल है और अपना पैतृक स्थान। ढलती उम्र में समय भी कितना बदल जाता है। ना आप अपने को बदल सकते ना समय को।
जिस तेजी से गांवों का शहर में विलय हो रहा है, कहीं ऐसा ना हो, हमें असली गांव देखने को ही ना मिले। शायद इसीलिए गुडगांव को आजकल गुरुग्राम कहा जाने लगा है, जहां गुड़ और गांव जैसा कुछ नहीं।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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