श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति ।)

?अभी अभी # 531 ⇒ स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

(Voluntary acceptance)

ऐसा लग रहा है, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की बात हो रही है। जी बिल्कुल सही, बिना सेवानिवृत्ति के वैसे भी कौन स्वीकारोक्ति की सोच भी पाता है। स्वीकारोक्ति स्वैच्छिक हो सकती है, लेकिन सेवानिवृत्ति इतनी आसान नहीं।

एक सेवानिवृत्ति तो स्वाभाविक होती है, ६०-६५ वर्ष तक खून पसीना एक करने के बाद जो हासिल होती है। चलो, गंगा नहा लिए ! होती है, सेवानिवृत्ति स्वैच्छिक भी होती है, हाय रे इंसान की मजबूरियां ! एक सेवानिवृत्ति अनिवार्य भी होती है, जिसे बर्खास्तगी (टर्मिनेशन) कहते हैं।

वे पहले सस्पेंड हुए, फिर टर्मिनेट। पहले सत्यानाश, फिर सवा सत्यानाश।।

जीवन के बही खाते का, नफे नुकसान का, लाभ हानि और पाप पुण्य का मूल्यांकन सेवानिवृत्ति के पश्चात् ही संभव होता है।

सफलताओं और उपलब्धियों को गिनाया और भुनाया जाता है। असफलताओं और कमजोरियों को छुपाया जाता है। जीवन का सुख भी सत्ता के सुख से कम नहीं होता।

क्या कभी किसी के मन में सेवानिवृत्ति के पश्चात् यह भाव आया है कि, इसके पहले कि चित्रगुप्त हमारे कर्म के बही खाते की जांच हमारे वहां ऊपर जाने पर करे, एक बार हम भी तो हमारे कर्मों का लेखा जोखा जांच परख लें। अगर कुछ डिक्लेयर करना है तो क्यों न यहीं इस दुनिया में ही कर दें। सोचो, छुपाकर क्या साथ ले जाया जाएगा, सच झूठ, सब यहीं धरा रह जाएगा।।

स्वैच्छिक का मतलब होता है जो अपनी इच्छा या पसंद पर निर्भर हो. वहीं, स्वीकारोक्ति का मतलब होता है वह कथन या बयान जिसमें अपना अपराध स्वीकार किया जाय। बड़ा दुख है स्वीकारोक्ति में ! लोग क्या कहेंगे। इस आदमी को तो हम ईमानदार समझते थे, यह तो इतना भ्रष्ट निकला, राम राम। बड़ा धर्मप्रेमी और सिद्धांतवादी बना फिरता था।

डालो सब पर मिट्टी, कुछ दिनों बाद ही जीवन के अस्सी वसंत पूरे हो जाएंगे, नेकी ही साथ जाएगी, क्यों मुफ्त में बदनामी का ठीकरा फोड़, अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार ली जाए।

जरा यहां आपकी अदालत तो देखिए, सबूत के अभाव में गुनहगार छूट जाता है, और झूठी गवाही के आधार पर बेचारा ईमानदार फंस जाता है। जिसे यहां न्याय नहीं मिलता, उसे ईश्वर की अदालत का इंतजार रहता है।।

जो समझदार होते हैं, उनका तो अक्सर यही कहना होता है, यह हमारा और ईश्वर का मामला है। उससे कुछ भी छुपा नहीं है। समाज को तो जो हमने दिया है, वही उसने लौटाया है। ईश्वर तो बड़ा दयालु है, सूरदास तो कह भी गए हैं ;

प्रभु मोरे अवगुन चित ना धरो।

समदरसि है नाम तिहारो

चाहे तो पार करो।।

किसी ने कहा भी है, एक अदालत ऊपर भी है, जब उसको ही फैसला करना है तो कहां बार बार जगह जगह फाइल दिखाते फिरें। फिर अगर एक बार भगवान से सेटिंग कर ली तो इस नश्वर संसार से क्या डरना। कितनी अटूट आस्था होती होगी ऐसे लोगों की ईश्वर में।

और एक हम हैं, सच झूठ, पाप पुण्य, और अच्छे बुरे का ठीकरा सर पर लिए, अपराध बोध में जिए चले जा रहे हैं। तेरा क्या होगा कालिया! जिसका खुद पर ही भरोसा नहीं, वह क्या भगवान पर भरोसा करेगा। गोस्वामी जी ने कहा भी है ;

एक भरोसो एक बल

एक आस विश्वास।

स्वाति-सलिल रघुनाथ

जस चातक तुलसीदास।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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