श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ठंड और रजाई…“।)
अभी अभी # 537 ⇒ ठंड और रजाई श्री प्रदीप शर्मा
जब मौसम करवट लेता है, और ठंड दस्तक देती है, तो सबसे पहले रजाई बाहर आती है। अचानक चादर छोटी पड़ने लग जाती है, और इंसान सोचता है, चादर अचानक इतनी ठंडी क्यों हो गई है।
वैसे चादर दो होती है, एक ओढ़ने की और एक बिछाने की। लेकिन जहां गरीबी में आटा गीला हो, वहां इंसान क्या तो ओढ़े और क्या बिछाए। कई बार तो अचानक ठंड पड़ने पर, हमने बिछाई हुई चादर भी ऊपर से ओढ़ी है।।
वैसे कबीर ने सारा ज्ञान चादर पर ही बांटा है, रजाई पर कभी उसका ध्यान नहीं गया। जाता भी कैसे, जुलाहा होते हुए भी हमेशा बाबा बनकर ही तो घूमते रहते थे ;
दास कबीर जतन से ओढ़ी
ज्यों की त्यों
धर दीनी रे चदरिया।।
ठंड में हम भी कबीर बन जाते हैं। चादर को ज्यों की त्यों रख देते हैं और रजाई में घुस जाते हैं। ठंड में रजाई का विकल्प सिर्फ कंबल है। पहले खादी भंडार वाले कम्बल आते थे, जो शरीर को चुभते थे। उधर ठंड चुभ रही और इधर ठंड से बचने जाओ तो कम्बल चुभे। साथ में एक चादर भी ओढ़ना ही पड़ती थी।
समय के साथ गुदगुदे इंपोर्टेड कंबल भी आ गए और मोटी मोटी रजाई की जगह जयपुरी रजाई ने ले ली। जब हमारे घरों में पलंग नहीं थे तो हम सभी भाई बहन जमीन पर ही लाइन से सोते थे। जमीन पर गद्दे बिछते थे और चादर, कंबल, रजाई, जो जिसके हाथ आई। अधिक ठंड होने पर कौन किसकी रजाई खींच रहा है, कौन किसके कंबल में घुस रहा है, कुछ पता नहीं चलता था।।
आजकल कौन जमीन पर सोता है। गद्दे भी कैसे कैसे आ गए हैं, kurl on और sleep well. वैसे तो well का अर्थ कुंआ भी होता है, लेकिन कुंए में ठंड में कौन सोता है।
हमारा तो आज भी बीस किलो रूई वाला गद्दा है और भरी पूरी गदराई हुई रजाई। हम ना तो लग्ज़री सोफे के आदी हैं और ना ही स्लीप वैल वाले गद्दों के। जब कभी घर से बाहर, मजबूरी में, होटलों में ठहरते हैं, तो घर के गद्दे रजाई बहुत याद आते हैं। एक वह भी जमाना था, जब बाहर घूमने जाते थे, तो बिस्तरबंद यानी होलडॉल साथ ले जाते थे।
आज तो सुविधा ही सुविधा है।।
पूरी ठंड हमारी रजाई से यारी रहेगी। लेकिन यह हरजाई भी घुसने से पहले बहुत ठंडी रहती है। यकीन मानिए, रजाई को भी गर्म हम ही करते हैं, हमारे बिना कैसी ठिठुरती रहती है।
रजाई में घुसते ही पहले हम उसे गर्म करते हैं, फिर वह हमें रात भर गर्म रखती है। सुबह उसे छोड़ने का मन नहीं करता। लेकिन वह भी जानती है इंसान की फितरत, इधर सर्दी हवा हुई, उधर हमने दल बदला। रजाई को अलविदा कहा और चादर ओढ़कर सो गए। किसी ने कहा भी तो है ;
पल दो पल का साथ हमारा।
पल दो पल के याराने हैं।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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