श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रिश्ता और प्यार“।)
क्या प्यार रिश्ता देखकर किया जाता है, क्या जहां रिश्ता नहीं होता, वहां प्यार नहीं होता! क्या प्यार को कोई नाम देना जरूरी है, क्या प्यार को केवल प्यार ही नहीं रहने दिया जा सकता। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं रिश्ते और प्यार। लेकिन यार के सिक्के में दोनों तरफ बेशुमार प्यार ही प्यार भरा रहता है।
इंसान अकेला पैदा जरूर होता है, लेकिन कभी अकेला रह नहीं पाता। वह जन्म से ही रिश्तों की कमाई करता चला जाता है। रिश्ते बढ़ते चले जाते हैं, प्यार परवान चढ़ा करता है। कितना प्यारा बच्चा है, किसका है। ।
रिश्ते हमें जोड़ते हैं, प्यार भी हमें जोड़ता है। जब तक रिश्तों में स्वार्थ और खुदगर्जी नहीं आती, प्यार भी कायम रहता है। चोली दामन का साथ नजर आता है दोनों में। लेकिन जब रिश्ते टूटते हैं, प्यार को भी चोट लगती है।
लोग प्यार में भी धोखा खाते हैं और रिश्ते भी बनते बिगड़ते रहते हैं। अचानक ऐसा क्या हो जाता है जो मलंग को यह कहना पड़ता है ;
कसमें वादे प्यार वफा
सब बातें हैं, बातों का क्या।
कोई किसी का नहीं
ये झूठे, वादे हैं, वादों का क्या। ।
क्यों ऐसे वक्त हमें जगजीत यह कहते हुए नजर आ जाते हैं ;
रिश्ता क्या है तेरा मेरा
मैं हूं शब और तू है सवेरा
रिश्तों में दरार आई
बेटा ना रहा बेटा
भाई ना रहा भाई। ।
कुछ रिश्ते हमारे बीच ऐसे होते हैं, जिन्हें हम कोई नाम नही दे सकते, लेकिन उनका अहसास हमें निरंतर होता रहता है। हम एक फूल को खिलते देखते हैं, किसी पक्षी को दाना चुगते देखते हैं, किसी अबोध बालक को किलकारी मारते देखते हैं, आसमान में बादलों की छटा देखते हैं, झरनों की कलकल और पक्षियों के कलरव हमें एक ऐसे अनासक्त जगत में ले जाते हैं, जहां सभी सांसारिक नाते रिश्ते गौण हो जाते हैं और मन में केवल यही विचार आता है ;
तेरे मेरे बीच में
कैसा है ये बंधन अनजाना
मैने नहीं जाना, तूने नहीं जाना …
अब आप इसे प्रकृति प्रेम कहें अथवा ईश्वरीय प्रेम, रिश्ता कहें या बंधन, लेकिन सिर्फ हम ही नहीं पूरी कायनात हमारे साथ यह पंक्ति दोहराती नजर आती है ;
क्या धरती और क्या आकाश
सबको प्यार की प्यास
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© श्री प्रदीप शर्मा
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