श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पीठ सुनती है…“।)
अभी अभी # 596 ⇒ पीठ सुनती है श्री प्रदीप शर्मा
जब दीवारों के कान हो सकते हैं, तो पीठ क्यों नहीं सुन सकती ? एक समय था, जब दीवारें भी मजबूत हुआ करती थीं, आज की तरह चार इंच की नहीं। मोटी मोटी दस इंच की दीवारें, जिनमें आले भी, होते थे और ताक भी, और तो और अलमारी भी। कमरों की दीवारों में या तो खिड़कियां होती थीं, या फिर रोशनदान। खिड़की अथवा रोशनदान ही संभवतः दीवारों के कान होते होंगे, जिनसे हवा के साथ कई रहस्य भी दीवारों तक पहुंच जाते होंगे। शायर लोग दीवारों से सर यूं ही नहीं टकराया करते। दीवारें जरूर उनके कान में कुछ कहती होंगी।
जब हम दीवार की ओर पीठ करके खड़े होते हैं, तो शायद हमारी पीठ भी कुछ तो सुनती ही होगी। मुझे अच्छी तरह याद है, बचपन में मैं दीवार से सटकर बैठता था, तो शरीर में कुछ सिहरन, कुछ सरसरी सी होती थी, ऐसा महसूस होते ही, जहां हाथ उस जगह पहुंचा, अनायास खटमल हाथ में आ जाता था। खटमलों की टोली पीठ पर चढ़कर आस्तीन तक पहुंच जाती थी। हमने आस्तीन में सांप ही नहीं, खटमल भी पाले हैं।।
हम जब किसी की तारीफ करते हैं, तो उसकी पीठ थपथपाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण के वक्त सभी सदस्य मेज़ थपथपाया करते हैं। किसी प्रस्ताव को ध्वनिमत से पास करने पर भी मेज़ थपथपाई जाती है। पीठ को थपथपाने पर पीठ को भी कुछ कुछ होता है, पीठ तो सहलाने पर वह भी अभिभूत हो जाती है। पीठ सब सुनती भी है, और महसूस भी करती है।
इंसान का सबसे ज्यादा बोझ उसकी पीठ ही वहन करती है। कंधों पर भी तो बोझ होता है, लेकिन दोनों कंधे भी तो पीठ पर ही लदे रहते हैं। इंसान हो या कछुआ, पीठ तो दोनों की ही मजबूत होती है। हमारा तो छोड़िए, पूरी पृथ्वी का भार वहन करते कूर्मावतार।।
पीठ पीछे तारीफ ही नहीं, बुराई भी होती है। युद्ध में बुजदिल पीठ दिखाते हैं, कायर पीठ पीछे छुरा भी भोंकते हैं, पीठ पीछे लोग क्या क्या गुल खिलाते हैं, कभी पलटकर भी देखिए।
हमें अपनी पीठ नजर नहीं आती, सामने सीना जरूर नजर आता है क्योंकि हमने सीना तानकर ही चलना सीखा है। हम अपनी पीठ ना तो देखते हैं, और ना ही किसी को दिखाते हैं। जिसकी बुराई करना हो, निःसंकोच उसके मुंह पर करते हैं, लेकिन पीठ पीछे उसकी तारीफ ही करते हैं।
हमारी पीठ ही हमारी रीढ़ है, शरीर की सबसे मजबूत और लचीली हमारी रीढ़ ही है। यह हमें झुकना भी सिखाती है और तनकर खड़े रहना भी। स्थूल और सूक्ष्म, मूलाधार से सहस्रार, पंच तत्व और सातों लोक इसी में समाए हैं। लोग आस्तीन में सांप पालते हैं, जब कि असली सर्पिणी रूपी ज्ञानवती कुंडलिनी तो यहीं विराजमान है।।
विद्या और ज्ञान को हम पीठ कभी नहीं दिखाते। विद्यापीठ, ज्ञानपीठ सृजन पीठ और व्यास पीठ हमारे ज्ञान के आगार हैं। श्रुति, स्मृति से यह ज्ञान पुस्तकों में आया और बच्चों की पीठ पर किताबों का बोझ लाद दिया गया। बच्चों की पीठ पर किताबें हैं, या गेहूं का बोरा।
कराग्रे वस्ते लक्ष्मी, कर मूले सरस्वती ! और सरस्वती किताबों से चलकर डिजिटल होती हुई बच्चों की नाजुक हथेलियों में मोबाइल में कैद हो गई। कम उम्र में आंखों पर चश्मा, गर्दन और रीढ़ की हड्डी पर दबाव। घर, दफ्तर मोबाइल, पी सी, डेस्क टॉप। जिस इंसान ने कभी काम से पीठ नहीं चुराई, कमर का दर्द लिए, पीठ की एम .आई. आर., हड्डियों के डॉक्टर को दिखा रहा है। डॉक्टर की रिपोर्ट बयां कर रही है, और पीठ सुन रही है अपनी ही दास्तान।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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