श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गया और बोधगया …“।)
अभी अभी # 618 ⇒ गया और बोधगया
श्री प्रदीप शर्मा
मैं कभी गया नहीं गया, बोधगया नहीं गया। सुना है दोनों जगह ऐसी हैं, जहां मुक्ति मिलती है।
जो चला गया, उसे भी और जिसे जीवन का बोध हो गया, उसे भी। जिसे बोध हो गया, वह बुद्ध हो गया। इसी स्थान पर बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी, वह बोधिवृक्ष यहीं है।
आखिर यह कैसा बोध है जो बोधगया में ही होता है। आप चाहें तो इसे आत्मबोध कहें, आत्म साक्षात्कार कहें, सेल्फ रियलाइजेशन कहें, यह होता तो हमारे अंदर ही है। यह बोधिवृक्ष भी हमारे अंदर ही है। अंदर की खोज के लिए बाहर का आलंबन तो लेना ही पड़ता है। चारों धाम की यात्रा अंतर्यात्रा के बिना कभी पूरी नहीं होती।।
मैं इतना अभागा, कभी प्रयागराज भी नहीं गया। गया हो या बोधगया, बद्रीनाथ धाम हो या हर की पेढ़ी, मुक्ति का द्वार तो गंगा ही है और गंगा, जमना और सरस्वती, तीनों नदियों का संगम भी प्रयागराज ही में है। हो गया न महाकुंभ। ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की प्रतीक ही तो हैं ये तीनों नदियां। जिसमें सरस्वती यानी वैराग्य तो लुप्त है। बिना वैराग्य के कहां मुक्ति। बुद्ध का वैराग्य ही बोधगया है।
हां मैं कन्याकुमारी स्थित विवेकानंद रॉक मेमोरियल जरूर गया हूं, कुछ समय के लिए ध्यानमग्न हो विवेकानंद भी बना, फिर वापस चला आया। काश विक्रमादित्य के सिंहासन की तरह बोधिवृक्ष के नीचे बैठने से ही बुद्धत्व की प्राप्ति हो जाए तो जीवन कितना आसान हो जाए। लेकिन यहां गुडविल नहीं, स्ट्रांग विल काम आती है। वैराग्य कोई जागीर नहीं, कि वसीयतनामे के जरिए चाहे जिसके नाम कर दी जाए।।
कबीर अक्सर ताने बाने की बात करते हैं, इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की बात करते हैं। इड़ा, पिंगला को आप चाहें तो सूर्य चंद्र नाड़ी समझें अथवा प्रतीक रूप में ज्ञान और भक्ति रूपा गंगा जमना, लेकिन सुषुम्ना तो अदृश्य वही सुप्त नाड़ी है, जो वैराग्य रूपी सरस्वती नदी की प्रतीक है। तीनों का संगम ही महाकुंभ है जो इसी शरीर में सहस्रार है। जिसे अमृत कहा जाता है, वह वह मुक्ति है जो हमें जन्म मरण के बंधन से मुक्त करती है। देव असुर दोनों मूर्ख थे, जो मुक्त होने की अपेक्षा, स्वर्ग प्राप्ति के लिए, और अमर होने के लिए, अमृतपान करना चाहते थे।
कबीर को भी इसका बोध था और बुद्ध को भी। जीते जी जिसे इसका बोध हो गया, वह बुद्ध हो गया, अमर हो गया वर्ना लगाते रहो डुबकी ज्ञान और भक्ति की गंगा में, बिना वैराग्य भाव के, करते रहो अमृत पान। जब छूटेंगे प्रान, यहीं गया में ही होगा पिंड दान।।
काश मुक्ति इतनी आसान होती ! काशी मरणोन्मुक्ति। काशी में तो केवल प्राण त्यागने से ही मुक्ति मिल जाती है। इस कोरोना ने भी इस बार काशी में कई को मुक्त कराया। मैं मति का मारा तो कभी काशी भी नहीं गया। सोचता हूं, जीते जी ही एक बार काशी हो आऊं, प्रयागराज के संगम में स्नान करके बोधगया भी हो आऊं। मन में यह मलाल तो नहीं रहेगा, जीते जी मैं कहीं भी नहीं गया ; न गया, न बोधगया ..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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