श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गुलदस्ता …“।)
अभी अभी # 639 ⇒ गुलदस्ता
श्री प्रदीप शर्मा
गुलदस्ता (BOUQUET)
गुलदस्ता कहें, बुके कहें, अथवा पुष्प गुच्छ, बात तो एक ही है। गुलशन से कुछ फूल चुन लिए, उनका गुलदस्ता बनाया, और पेश कर दिया। खुशी का इज़हार है गुलदस्ता, प्रेम का उपहार है गुलदस्ता। जहां आमंत्रण में स्पष्ट हिदायत होती है, प्रेम ही उपहार है, वहां खाली हाथ तो नहीं जाया जा सकता।
हमारे शहर में एक पद्मश्री समाजसेवी थे, बाबूलाल जी पाटोदी, उनकी तो केवल उपस्थिति और आशीर्वाद ही मंगल प्रसंग की गरिमा में चार चांद लगा देता था। वे कभी खाली हाथ आशीर्वाद नहीं देते थे, एक, दो रुपए का कड़क नोट उस जमाने में किसी अमूल्य निधि से कम नहीं था। हर अमीर गरीब उनका मुरीद था, एक एक दिन में दर्जनों विवाह प्रसंग और स्वागत समारोह। लेकिन उन्होंने कभी किसी को निराश नहीं किया।।
वैसे भी वह जमाना दो, पांच, और ग्यारह रुपए का ही था। तब अधिकांश समाजों में दो रुपए का ही रिवाज था। लिफाफा देते वक्त अपनी ही नहीं, सामने वाले की हैसियत का भी ख्याल रखना पड़ता था। ग्यारह, इक्कीस, इक्कावन और अधिकतम एक सौ एक तक आते आते, हमारी हैसियत जवाब दे जाती थी।
कुछ लोग उपहार में नकद के बजाए गिफ्ट देना पसंद करते हैं। रंगीन गिफ्ट पैक में लिपटा हुआ उपहार जितना बड़ा और भारी भरकम होता, उतना ही सामने वाले पर अधिक प्रभाव पड़ता। अंदर क्या है, की जिज्ञासा हमेशा बनी रहती थी। बड़ी बड़ी वाटर बॉटल और किचन कैसरोल अथवा मिल्टन के टिफिन बॉक्स का बड़ी तादाद में लेन देन होता था। तेरा तुझको अर्पण। सस्ती, कम बजट की क्वार्ट्ज दीवार घड़ियां समस्या को आसान कर देती थी। अब किसने क्या टिकाया, ये अंदर की बात है।।
हम सामाजिक प्राणी हैं, जन्मदिन, शादी की सालगिरह, गोल्डन और सिल्वर जुबली, सगाई हो अथवा शादी, समारोह तो धूमधाम से ही होता है।
करीबी रिश्तेदार, अड़ोस पड़ोस और इष्ट मित्रों, सहयोगियों से ही तो आयोजन की शोभा बढ़ती है। गृह प्रवेश तो ठीक, आजकल शासकीय सेवा निवृत्ति के अवसर पर भी शादियों जैसा भव्य समारोह संपन्न होता है।
नकद और उपहारों को तो बड़े करीने से सहेज लिया जाता है, लेकिन बेचारे गुलदस्तों और हार फूलों की तो चार दिन की भी चांदनी नहीं होती। कुछ गुलाब की पंखुड़ियां पांव तले बिछाई जा रही हैं, और उन पर चरण पादुका सहित चलकर मानो उनका उद्धार किया जा रहा हो।।
करीने से पारदर्शी कवर में लपेटा खूबसूरत गुलदस्ता कब तक अपनी किस्मत पर इतराएगा। इस हाथ से उस हाथ जाएगा, तस्वीर में भी कैद हो जाएगा, शायद एक दो दिन किसी के ड्राइंग रूम की शोभा भी बढ़ाएगा, लेकिन उसके बाद तो वह सिर्फ सूखा और गीला कचरा ही रह जाएगा।
जब तक एक फूल गुलशन में खिल रहा है, उसे इतराने का अधिकार है। भंवरे और तितलियां उसके आसपास मंडराएंगी, लेकिन जहां किसी माली ने उसे तोड़ा, उसकी किस्मत बदल जाएगी। कोई नेहरू उसे जैकेट में लगाएगा तो कोई वैजयंतीमाला उसे अपने जूड़े में सजा इतराएगी। वही फूल किसी गुलदस्ते का हिस्सा भी बनेगा, लेकिन कब तक, जब तक वह मुरझाता नहीं। यह खुदगर्ज जमाना तो उसे सूंघकर, सजाकर बाद में फेंक देगा, कुचल देगा। शायद यही इस दुनिया का दस्तूर है। फूल हो या कोई गुलदस्ता, तुम्हारा जीवन, कितना सस्ता।।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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