श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुंह में पानी।)  

? अभी अभी ⇒ मुंह में पानी? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

गर्मी का मौसम है, सबको प्यास लगती है, गला सबका सूखता है। मुंह में इधर पानी गया, उधर हमारी प्यास बुझी। पानी और प्यास का चोली दामन का रिश्ता है।

 दुनिया की प्यास बुझाने वाले कुएं को भी हमने गर्मी में सूखते देखा है। प्यास कुएं को भी लगती है, उसका भी गला सूखता है। वहीं बारिश में यही कुआ मुंह तक लबालब भरा रहता है। जल है तो तृप्ति है, गर्मी है तो प्यास है। ।

होता है, अक्सर होता है ! प्यास नहीं, फिर भी हमारे मुंह में पानी आता है, जब कहीं असली घी की जलेबी बनाई जा रही हो। कभी किसी ऐसी नमकीन की दुकान के पास से गुजरकर देखें, जहां गर्मागर्म ताजी सेंव बन रही हो। खुशबू पहले नाक में प्रवेश करती है, और तुरंत पानी मुंह में आता है।

कहते हैं, हमारे शरीर में कई ग्रंथियां होती हैं, उनमें से एक ग्रंथि स्वाद की भी होती है। मुंह में पानी आना तो ठीक, लेकिन अगर मुंह से लार टपकने लगे, तो यह तो बहुत ही गलत है। लेकिन यह लार भी अनुभवजन्य है, महसूस की जा सकती है। फिर भी ताड़ने वाले ताड़ ही लेते हैं, जो कयामत की नजर रखते हैं। ।

लार टपकने की ग्रंथि को आप लालच की ग्रंथि भी कह सकते हैं। फिल्म जॉनी मेरा नाम में पद्मा खन्ना के डांस पर केवल प्रेमनाथ ने ही लार नहीं टपकाई थी। हमें तो भाई साहब, बहुत शर्म आई थी।

वैसे लार का क्या है, आजकल के बच्चे तो पिज़्जा, बर्गर और पास्ता देखकर ही लार टपकाना शुरू कर देते हैं।

लार टपकाने का एक और विकृत स्वरूप होता है, जिसे हवस कहते हैं। हमने लोगों को सिर्फ लार टपकाते ही नहीं, महिलाओं को इस तरह घूरते देखा है, मानो कुछ देर में उनकी आंखें ही टपक पड़ेंगी। ।

काश कोई ऐसा समर्थ योगी सन्यासी होता, जो इनको टपकाने के बजाय इनकी खराब नीयत को ही टपका देता। लेकिन आजकल के योगी इनको टपकाने के लिए खुद भी भाईगिरी पर उतर आते हैं और हमारे सनातन प्रेमी इनमें अपने आदर्श महामना चाणक्य के दर्शन करते हैं जिनका सिद्धान्त होता है, शठे शाठ्यम् समाचरेत्। इनका बाहुबलियों को टपकाना आजकल एनकाउंटर कहलाता है।

एक ग्रंथि भय की भी होती है। उसमें गला नहीं, मुंह सूखता है। रात को कोई डरावना सपना देखा, डर के मारे पसीना पसीना हो गए, घबराहट बेचैनी से मुंह सूख गया, हड़बड़ाहट में नींद खुल गई। गटागट पानी पीया, तब जाकर थोड़ा स्वस्थ हुए। ।

जैसे जैसे गर्मी बढ़ेगी, प्यास भी बढ़ेगी। फलों में रस होता है। संतरा, मौसंबी, तरबूज, खरबूजा, कच्ची कैरी का पना और फलों का राजा आम भी दस्तक दे ही रहा है। शरीर में तरावट बनी रहे।

मुंह में पानी का तो क्या है, कहीं बाजार में मस्तानी लस्सी का बोर्ड देखा, तो मुंह में पानी आया। लेकिन अगर लस्सी स्वादिष्ट नहीं निकली, तो सब मजा किरकिरा हो जाता है। क्या करें, रसना है ही ऐसी। जो इसका गुलाम हुआ, उसकी ऐसी की तैसी। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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