डॉ. विजय तिवारी ‘किसलय’
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक आलेख “इहलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होना ही कृष्ण भक्ति”।)
☆ इहलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होना ही कृष्ण भक्ति ☆ डॉ. विजय तिवारी ‘किसलय’ ☆
जन्म शब्द मानव जाति के लिए कभी न भूलने वाला वह क्षण है, जब इस जग में हमारा आगमन होता है। जन्मदिन किसी का भी हो महत्त्वपूर्ण होता है। यदि हम अपनों का जन्म दिवस बड़ी धूमधाम से मना रहे हैं तब हमारे भगवान कृष्ण का जन्मदिन हो तो कहने ही क्या। कान्हा का जन्मदिन मनाने के लिए मन में कितनी श्रद्धा, भक्ति, आस्था, समर्पण और उत्साह होता है, इसे स्वयं आप हम सभी जानते हैं। भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी अर्थात कृष्ण जन्माष्टमी की प्रतीक्षा सभी हिंदुओं को पूरे वर्ष रहती है। हरित वसुंधरा, पानी से लबालब झील, बावली, सरोवर और नदियों में उछलती मचलती व्यापक जलराशि के दृश्य देखकर प्रतीत होता है जैसे वसुधा का सौंदर्य चरम पर हो। ऐसे आनंदमय वातावरण में अपने कान्हा का जन्मदिन मनाना हर सनातनी के लिए गर्व की बात है। श्री कृष्ण ने अपने अवतारी जीवनकाल में जितने चमत्कार, लीलाएँ और धर्मसंस्थापनार्थाय कार्य किए हैं, शायद भगवान विष्णु के किसी अन्य अवतारी ने नहीं किये।
हम प्रतिवर्ष भगवान कृष्ण का जन्मदिन धार्मिक परंपराओं, आचार्य के निर्देशानुसार विधि विधान से मनाते हैं। झाँकियाँ सजाते हैं। भक्तिभाव से ओतप्रोत भजन गाते-सुनते हैं व्रत-उपवास रखते हैं। कृष्ण भक्ति में लीन रहते हैं। समाप्ति पर प्रभु से आशीष व प्रसाद लेते हैं। तदुपरांत कृष्ण जन्मोत्सव संपन्नम् कहकर स्वयं को धन्य मान लेते हैं।
ईश्वर की इस आस्था और भक्ति पर कोई भी टिप्पणी करना ईश निंदा जैसा होगा। टिप्पणी करना भी नहीं चाहिए लेकिन हमें यह तो पता होना ही चाहिए कि हम यह जन्मदिन क्यों मनाते हैं। इससे हमें वास्तव में कुछ अर्जित हो भी रहा है अथवा नहीं। यदि हम भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन मना रहे हैं तो कम से कम हमें उनके इहलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होना ही चाहिए। यहाँ मेरा आशय यह है कि भले ही हमें उनसे संबंधित व्यापक जानकारी न हो परंतु हम भगवान श्री कृष्ण से इतने भी अनभिज्ञ न हों कि दूसरों के समक्ष हमें लज्जित होना पड़े। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी लिखा है कि “हरि अनंत हरि कथा अनंता”. अर्थात अनंत श्रीहरि की कथायें भी अनंत हैं। इसलिए अनंत नहीं तो उनकी मूलभूत जानकारी होना ही चाहिए। साथ ही यह भी सुनिश्चित करें कि हम उनके बताये मार्ग का कितना अनुकरण कर पा रहे हैं, क्योंकि ऐसे में श्री कृष्ण के प्रति आस्था और विश्वास रखना आपका धार्मिक कर्तव्य होगा। मानव जाति को समाज में अपने हिसाब से रहने की स्वतंत्रता तो होना चाहिए लेकिन स्वेच्छाचारिता नहीं। हमारे ये पर्व और जन्मदिन हमें यही सीख देते हैं और यही उद्देश्य भी होता है। जब कृष्ण जन्माष्टमी हम सभी मनाते हैं तब आईये, उनसे संबंधित कुछ तथ्यों को जानते हैं।
भगवान श्री कृष्ण का जन्म वर्ष, गोकुल-वृंदावन और मथुरा की निवास अवधि। द्वारकाधीश बनने के समय में मतैक्य नहीं है, फिर भी अंतरिम रूप से स्वीकारते हुए उनके बारे में कुछ बातें जानते हैं। कुछ वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि भगवान श्री कृष्ण का जन्म ईसा पूर्व लगभग 3100 ईस्वी में हुआ था। भगवान विष्णु के आठवें अवतारी पुरुष भगवान श्रीकृष्ण हैं। श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा के कारावास में देवकी और वसुदेव के पुत्र के रूप में हुआ था। वध के डर से पिता वसुदेव जी कृष्ण के पैदा होते ही उन्हें गोकुल में यशोदा-नंद के घर छोड़ आए थे। पूरे बाल्यकाल में इन्होंने अपनी बाल लीलाओं और चमत्कारों से सारे गोकुल और वृंदावन वासियों को चमत्कृत तथा सम्मोहित- सा कर रखा था। अनेक राक्षसों का वध तथा गोवर्धन पर्वत को अपनी उँगली पर उठाकर स्वयं को अलौकिक बना दिया था। इनके बचपन से ही लोग इन्हें माखनचोर, मुरारि, गिरधारी, रासबिहारी के नाम से पुकारने लगए थे। गोप-गोपियों से प्रेम, रासलीला तथा राधा से पारलौकिक प्रेम मानव लोक में अद्वितीय कहा जा सकता है। इस अवतार में लक्ष्मी स्वरूपा राधारानी का विरह भी अकल्पनीय है। अपने जीवन के बारहवें वर्ष में श्रीकृष्ण ने वृंदावन छोड़ा और मथुरा जाकर अपने मामा कंस का वध किया। पुनः राजा अग्रसेन का राजतिलक कराया। जरासंध द्वारा अपने दामाद कंस का बदला लेने के उद्देश्य से मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया, लेकिन कृष्ण जी उसे हर बार जीवित छोड़ते रहे। कृष्ण जी अंतिम बार युद्ध छोड़कर भाग गए जिस कारण उन्हें भगवान रणछोड़ भी कहा जाता है। तभी परिवार और प्रजा सहित वे मथुरा छोड़कर द्वारका में जा बसे। करीब 36 वर्ष तक द्वारकाधीश बने रहे। इसी अवधि में महाभारत सहित धर्म की स्थापना हेतु अनेक कार्य करते हुए अपने अवतार को सार्थक किया।
यही से उनकी द्वारकाधीश कृष्ण की यात्रा शुरू होती है महायोगेश्वर, सुदर्शन चक्रधारी, विराट रूप धारी, सारथी और धर्म संस्थापक कृष्ण जैसी भूमिकाओं का उद्देश्यपूर्ण निर्वहन करते हैं। भगवान कृष्ण लगभग 36 वर्ष तक द्वारकाधीश के रूप में रहते हैं। 125 वर्ष की आयु में श्री कृष्ण जी वापस निजलोक गमन कर जाते हैं।
आज से लगभग 5230 वर्ष से हम निरंतर भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन मनाते चले आ रहे हैं। यही हमारे सनातन संस्कार हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हुए आज भी जीवित हैं। इनसे भी हमें सीख मिलती है कि जब हम अपने आराध्य भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन मना कर उनके बताए आदर्श मार्ग व उनके व्यक्तित्व-कृतित्व का विधिवत स्मरण करते हैं, तब हम अपने बुजुर्गों, पूर्वजों, पारिवारिक सदस्यों के भी जन्मदिन को हर्षोल्लास से मनायें। हम अपने महापुरुषों, मार्गदर्शकों, देशभक्तों के जन्मदिवस पर उन्हें स्मरण कर उनके प्रति कृतज्ञता निवेदित करना अपना नैतिक धर्म मानें।
© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
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