डॉ प्रतिभा मुदलियार


(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में  हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार

आज प्रस्तुत है डॉ प्रतिभा जी का एक अभिनव प्रयोग  ईमेल@अनजान।  अभिनव प्रयोग इसलिए क्योंकि आज पत्र  भला कौन लिखता है? कृपया आत्मसात करें । )

☆ ईमेल@अनजान -1☆

प्रिय अनजान,

बहुत दिनों से सोच रही थी कि किसी से मन भर कर बात करूँ। पर किससे? हर किसी से हर तरह की बात नहीं की जा सकती.. कारण लोग शब्दों का अर्थ अपने अपने हिसाब से ग्रहण करते हैं …जैसे वर्षा हो तो मयुर नाचता है और पपिहा रोता है…और उसके अनुसार रिएक्ट भी करते हैं… हमें पता ही नहीं होता कि हमारे शब्दों का कोई विशेष अर्थ भी लिया जा रहा है और उसके तहत कुछ भिन्न माहौल तैयार हो रहा है जिसकी हमें कोई कल्पना तक नहीं होती। सच कहूँ.. आज अपनों से निखालिस खुलकर बात करने के दिन नहीं रहे.. अब हमें शब्दों को माप तोलकर बोलना होता है.. ताकि सामने वाला ‘हर्ट’ ना हो…..अब वे दिन नहीं रहें जब हम अपने दोस्तों से, सखी-सहेलियों से, अपने किसी रिश्तेदार से या हमारे रहस्य के साझेदारों से…. न जाने कितनी बातें किया करते थे.. आज भी याद है … मैं और मेरी फूफी खूब बातें किया करती थी…. सभी कहा करते थे.. पता नहीं दोनों का क्या चलता रहता है… जब देखों बातें, बातें और बातें… सच में हमारी बातों का अंत ही नहीं होता था… और उसमें खास कुछ होता भी नहीं था… लेकिन लगातार बातें हुआ करती थीं… और फिर हो हो करके हँसना… वैसे मैं अपनी सहेलियों के बीच अपनी हंसी के लिए जानी जाती थी….. जब मैं लेक्चरार बनी तब हमारा अपना एक महिला लेक्चरार का ग्रूप था.. हम सब अपनी अपनी क्लासेस खतम करके स्टाफ रूम में आ जाती थीं तो ढेरों बातें हुआ करती थीं.. और उसके साथ हमारी हँसी के फव्वारें भी उड़ा करते थे। यादगार दिन थे…. अकादमिक उंचाइयाँ पाते पाते कुछ अच्छे दोस्त पीछे छूट गए.. और एक वैक्युम बन गया जो आजतक भरा हीं नहीं.. सच है… दोस्तों की कमी कोई नहीं पूरा कर सकता….!!

पता है मैं तुम्हें यह मेल क्यों लिख रही हूँ? क्यों कि आज किसी से रु ब रु होकर बात करनी है… बहुत सी… पहले ही बताए देती हूँ.. मेरी बातों में कोई भी खास विषय नहीं है….. मुझे यह कहना है.. या वह कहना है….. ऐसा कुछ नहीं… बस बोलना है… जो मन में आए… तुम जैसा श्रोता हो तो फिर मुझे शब्दों को नाप तोलकर बोलने की क्या आवश्यकता? कभी कभी खुद को एकदम सहज रखना चाहिए ..जिससे मन के जाले अपने अपने आप साफ हो जाते हैं… फिर मन में ग्रंथियाँ घर नहीं करती.. अक्सर मैं कविता के माध्यम से कुछ अभिव्यक्त कर देती हूँ… फिर सोचा चलो इमेल के द्वारा ही कुछ बोलुँ.. यही तो आज की दुनिया का कारगर माध्यम है ना….  और तो और पहले  की तरह पत्र लिखने का आनंद भी लिया जा सकता है… एक जमाना था जब डाकिए की प्रतिक्षा में आँखे बिछाए बैठे रहते थे….. खिडकी से झाँक कर गली के कोने तक नज़र दौडाया करते थे…. और पत्र पाकर फूले अंग नहीं समाते थे….किंतु आज ऐसा नहीं है… आज के तकनीकी युग में सोशल होने के इतने सारे माध्यम उपलब्ध हैं कि हर कोई इस दुनिया से जुडा हुआ है.. सबके सोशल फ्रेंडस होते हैं … और यदि आप सोशल मीडिया पर एक्टिव नहीं होते हैं तो आप फिर समय के पीछे  हैं… पर इतना सारा होने के बावजूद अंततः अपनी चार दीवारों में फिर भी अकेले……. कभी सोचती हूँ… भला क्यों आज हम इतने अकेले हो गए हैं…. अकेले नहीं हुए हैं.. हमने यह अकेलापन जान बुझकर अपनाया है… आज जिसे ‘स्पेस’ कहा जाता है ना… यह वही ‘स्पेस’ है जो हमें अपने अपने ‘शेल’ में बंद कर रहा है…गत दो महीने से कोराना की वजह से लोग तालाबंदी में जीवन जी रहे हैं… और सभी सोशल मीडिया में एकदम से व्यस्त हो गए…. इन दो महीनों ने ‘स्पेस और टाइम’ का अच्छा पाठ हम सबको पढाया है… मैं भी अपना ‘स्पेस’ चाहती हूँ…. तुम्हे भी चाहिए… हर किसी को लगता है कि अपना एक … अपने हक का कोना हो…जहाँ सिर्फ ‘मैं और मेरा मैं’ पसरा पड़ा हो…. जिसमें किसी की कोई दखल न हो…. मुझे अच्छा लगता है अपना ‘मैं’ और अपने ‘मैं का स्पेस’…… मैं खूब बातें करती हूँ… अपने से और अपने मैं से…  आज इस मैं के दायरे में मैंने तुम्हें शामिल किया है… कारण मेरे मैं का तुम  एक तरह से प्रतिबिंब ही हो…

जीवन की इस संध्याछाया में मन का कोई कोना कुछ उदास हो गया था…कुछ ही पल के लिए…उदास होने के लिए कारण?… संसार पर आयी यह विपदा…कोराना का भयाक्रांत वर्तमान…असमंजस का वातावरण…मज़दूरों का पलायन.. गरीबों की भूख…और अपनों की दूरियाँ यह सब भी तो मेरी उदासी में शामिल है…. मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि यह सब क्यों हो रहा है?  एकाध महीने से पहले जीवन की रफ्तार कैसी तेज थी… हर एक के पैर में पहिए लगे हुए थे… सभी बस भागे जा रहे थे.. और एकदम से हमारी गति में लग गया ब्रेक… और मेरे मन में उठने लगा विचारों बवंडर ….दुनिया में होनेवाली मृत्यु को लेकर मन अशांत सा हो रहा है….पर साथ ही इस दुनिया में आनेवाले मासुम बच्चे जीवन की एक नयी परिभाषा भी तो लिख रहे हैं….उन निश्छल आँखों में जीवन का कितना ताजा रंग भरा है…अपनी छोटी छोटी आँखें खोलकर अपनी मुट्टी में जब माँ की उंगली थाम लेते हैं तब उस माँ को दुनिया का सबसे बडा संबंल मिल जाता होगा न…. तब सच में लगता है जीवन सुंदर ही होता है… उसमें होते हैं बहुत सारे रंग.. जैसे कभी कभी आसमान में देखने मिलते हैं….उनको निहारने में होती है सुखद अनुभूति… उन बादलों के रंगों को निहारने में समय का भान ही नहीं रहता…  वे रंग हमें खुशी भी देते हैं और कुछ भुले बिसरे पल याद भी दिलाते हैं… और ले जाते हैं हमें… पता नहीं स्मृति के किस कोने में! …और अनायास उस भूली बिसुरी स्मृति से पता लगता है… अरे समय कितना ही तो बीत गया न!!  …. अरी समय है …. रुकता थोडे ही… उसे तो चलना है निरंतर…यही होता तुम्हारा कहना… जानती हूँ मैं….. हाँ…..तो मैं बता रही थी कि… जीवन सुंदर होता है… उसमें होते हैं कई तरह के रंग…. वे रंग कभी मैले नहीं होते… किंतु कभी कभी हमें कुछ रंगों से शिकायत होती है… और लगने लगता है कि यह कैसा रंग है जीवन का.. ऐसा भी क्या जीवन होता है… ऐसा जीवन तो हमने कभी चाहा ही नहीं था… फिर??? तुम्हें लगेगा ….. जिंदगी का इतना सारा सफर तय करने के बाद… अब इस पडाव पर आकर मैं अध्यात्म झाड रही हूँ.. न न…. ऐसा नहीं है… एकांत में… अकेलेपन में जब हम होते हैं न तब यूँही हम अपने बीते जीवन के पन्ने पलट ही लेते हैं…और लगता है… अच्छा था जीवन…. ठेस थी, संघर्ष था, पीडा थी, पुरस्कार था…भीड भी थी और तनहा भी थे … ईश्वर से शिकायत भी थी और प्रार्थना में हाथ जुडे थे… मजेदार है न…यही तो है मर्म जीवन… इन्हीं इंद्रधनुषी रंगों से खिलता है जीवनपुष्प…किसी ने जीवन को लेकर बहुत अच्छि बात कही है… जीवन जीने का नाम है… और हमें जीना है.. चाहे हँसकर चाहे रोकर… अपने सुखद जीवन के लिए हमें ही अपने रंग चुनने है..अपनी अंतरात्मा की आवाज हमें ही सुननी है……हमें ही तय करने होते है हमारे मार्ग… हमारा लक्ष्य….आज वॉटस एप पर एक अच्छा वाक्य पढने मिला.. जीयों के ऐसे जियो कि यमराज प्राण लेने के लिए आए और कहकर जाए जी लो यार मैं फिर कभी आता हूँ… कितनी सकारात्मकता है ना… कभी कभी वॉटस् एप बहुत ही गंभीर जानकारी मिलती है।

अरे ये मैं क्या लिख गयी!!… मैं इसे डिलिट नहीं करूँगी…. क्योंकि चाहती हूँ… लिखुं… वह सब जो बिना सोचे समझे शब्दों से झरता  चला जाए…. पर, एक बात यह भी तो है कि जीवन का एक स्याह रंग भी तो होता है… हर एक के जीवन में होता है यह स्याह रंग… कालापक्ष… कितना भयावह लगता है यह शब्द.. कालापक्ष… पर होता तो है ना..असफलताएँ, अपमान,  अभाव आदि को हम इस पक्ष में डाल देते हैं और … आँखों को आँसुओं के भरोसे छोड देते है…और कोसते रहते हैं नियती को, भाग्य को…. स्वाभाविक है…ऐसा ही होता है….खूब आँसू बहें है मेरे… खूब कोसा है भगवान को….लडी भी हूँ मैं उससे… पर आखिर झुकी भी हूँ उसके ही सामने….मानती हूँ मैं उस परम शक्ति को जो देती है मुझे एक विश्वास.. साहस…. जीने का, लडने का…… ।। मंजिले तय करने के बाद रास्ते बन जाते है…. पर रास्तों पर चलना आसान भी तो नहीं होता न…..यही तो परीक्षा का समय है… संघर्ष की राह पर चलकर कुंदन बनकर निखरना होता है…… आज का यह वर्तमान भी समस्त विश्व का स्याहपक्ष है…यह दौर भी गुजर जाएगा… शाश्वत तो कुछ भी नहीं है…. हमारे सब से कठिन समय में अगर कुछ हमारे साथ होता है तो वह है उम्मीद… इस उम्मीद के ही भरोसे हमें जीना है…

यह उम्मीद ही थी जो मुझे अपने जीवन-संघर्ष करने के लिए शक्ति दे गयी थी… लेकिन एक बात है मैने अपने जीवन से कभी शिकायत नहीं की…. शायद .. शायद…ऐसा भी हो सकता है कि मेरे प्रयत्नों को सफलता मिलती गयी…. मैंने अपने अपयश को अवसर दिया… हर वह जो मुझे लगा सीखना अवश्य है तो मैंने उसे सीखा… मेरे पापा मुझे अक्सर कहते थे कि सीखने का अवसर कभी गवांना नहीं… ज्ञान फिर वह किसी भी प्रकार का क्यों न हो समृद्ध ही करता है ….जीवन के प्रारंभिक दौर में अभाव ही अभाव थे पर उनके प्रति कभी कोई शिकायत थी ही नहीं.. करें किससे?… इतनी अकल तो थी ही कि जिद करने से कुछ मिलनेवाला तो नहीं है.. हाँ माँ परेशान हो जाएगी… माँ का कलेजा है…. इसलिए शिकायत कभी की ही नहीं.. मेरे लिए मेरे भाइयों की जिद सबसे अहम थी…छोटी जिद होती थी..किसी को बॉल चाहिए था, किसी को एक टी शर्ट, किसी को पेन, पेन्सिल, पुस्तक या  कभी कभी अपनी जेब में रखने के लिए दस रुपये..कितनी छोटी जरूरत.. कितनी छोटी जिद..कितनी छोटी जरूरत… पर पुरी नहीं हो पाती थी… आर्थिक अभाव सबको तोडता है…सच है…जीवन का सबसे बडा सच है… मेरी एक मित्र है… अक्सर कहती थी… प्रतिभा, जीवन में पैसा होना चाहिए… कम से कम वह तुम्हारी रोटी की चिंता कम कर देता है….सच है…  दरअसल उसके जीवन की समस्याएं भिन्न थीं… रोटी समस्या ही नहीं थी उसकी… लेकिन…. जिसके जीवन की समस्या ही रोटी हो… भूख हो .. वह क्या करें….उसे तो पैसा अर्जित कर पहले रोटी की समस्या ही तो हल करनी है … रामवृक्ष बेनिपुरी का एक निबंध है… गेहूँ बनाम गुलाब… मुझे यह निंबध अक्सर याद आता है… उसमें उन्होंने कहा है… “गेहूँ हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्‍त होता है। गेहूँ बड़ा या गुलाब? हम क्‍या चाहते हैं – पुष्‍ट शरीर या तृप्‍त मानस? या पुष्‍ट शरीर पर तृप्‍त मानस”? पेट में जब ठंडक पड जाती है तभी तो इन्सान गुनगुनाने लगता है।

जानते हो रात की साढे बारह बज रहे हैं… नींद लगते लगते एक बज जाएगा.. फिर सुबह का रुटिन है…. आज बस इतना भर लिखती हूँ… और कुछ किसी और दिन… पर सुनो…तुम से बात करना अच्छा लगा…

तुम्हारी मैं…

 

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006

दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

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सुरेश तन्मय

बहुत बहुत सुंदर,
शब्दो को नापतोल कर बोलना चाहिए। अब हमें पता ही नहीं चलता कि, हमारे शब्दों का कोई विशेष अर्थ भी लिया जा रहा है।
“वर्षा में मयूर नाचता है और पपीहा रोता है”
शुभकामनाएं

Shafiya farhin

” तुम्हारी मैं ” कितना सुकून दिलाता है ऐसा लिखना।