डॉ कुंवर प्रेमिल
☆ उधार की बैसाखी पर टिकी हिंदी लघुकथा : डॉ. कुंवर प्रेमिल ☆
‘चहुं ओर लघुकथाएं फैली हैं! ‘
यह मैं अकेला नहीं कह रहा हूं, बल्कि हर कोई कह रहा है. पढे लिखे, बिना पढ़े-लिखे सभी लघुकथा के फैन हैं. सभी लघुकथाएं पढ़ रहे हैं. कहते हैं लंबी-लंबी कहानी पढ़ने के लिए किसके पास समय है. लघुकथा सरल-सुबोध है. हर जगह उपलब्ध है.
ट्रेन में सफर करते चलो, लघुकथाएं पढ़ते चलो, पढ़ते-पढ़ते दिल्ली पहुंच गए तो वहां तो लघुकथा के समुद्र में ही पहुंच गए. एक से बढ़कर एक. छोटी, मंझोली और बड़ी भी. कोई दो पंक्ति की, कोई एक पृष्ठ भर की, कोई डेढ़ दो पृष्ठ की भी मिल जाएगी.
लघुकथा के पास पाठकों की कमी नहीं है. लघुकथाकार हैं तो पाठक भी हैं. पाठकों के मामले में लघुकथा धनवान है. वरिष्ठ लघुकथाकार तो हैं ही, पढ़ते-पढ़ते पाठक भी न जाने कब लघुकथा लिखने लगता है, पता ही नहीं चलता. कहानी-कविता के बनिस्बत लघुकथा लिखना ज्यादा सरल प्रतीत होता है.
डॉ. शंकर पुणतांबेकर ने कहा है- ‘ कविता में कथा न हो तो प्रसंग तो होता ही है. इस मायने में कविता और लघुकथा परस्पर निकट हैं. हां समीक्षक इसे स्वीकार न करें यह अलग बात है. लघुकथा के साथ यह त्रासदी है कि उसकी वकालत उसी को ही करनी होती है. फैसला सुनाने वाला भी कोई तीसरा नहीं आता. ‘ (संदर्भ ‘ प्रतिनिधि लघुकथाएं-2010’).
कोई अपनी कहानी को संक्षिप्त कर लघुकथा कर देता है; उसके लिए वही लघुकथा है. वह जानता है कि लघुकथा के पास ऐसा कोई रूप-स्वरूप, आकार तो सुनिश्चित है नहीं तो डर काहे का. लिख डालो कैसी भी कितनी भी, छोटी-बड़ी और बन जाओ रातों रात लघुकथाकार.
आजकल एक-एक, दो-दो किलोमीटर पर लघुकथाकार मिल जाएंगे. अब तो मोबाइल पर भी लघुकथा पढ़ी जाने लगी है. अब सवाल यह उठता है कि जब लघुकथाओं को इतनी प्रसिद्धि मिली है, विस्तारित है, तो उसका आकार-प्रकार सुनिश्चित क्यों नहीं किया गया … और अब कौन व आकार को सुनिश्चित करने का प्रयत्न करेगा. इतना जरूरी काम गैरजरूरी बन कर कैसे रह गया ?
कहते हैं कि लघुकथा का अभी तक कोई मान्य समीक्षक नहीं है. समीक्षा हो रही है. मान्य समीक्षक के लिए इन समीक्षकों के पास कोई डिग्री-डिप्लोमा तो जरूर होगा. कौन सा विद्यालय या विश्व विद्यालय समीक्षक बनाने का पुनीत काम कर रहा है यह मालूम तो होना चाहिए. समीक्षकों के पास कोई डिग्री है भी या नहीं.
यहां तो हर कोई दूसरा-तीसरा लघुकथा लेखक समीक्षक बना घूम रहा है. किसी की लघुकथा की किताब छपी नहीं कि वह खाना-पीना भूलकर किसी अच्छे समीक्षक की तलाश में घूमने लगता है. अच्छी समीक्षा लिख गई तो फिर बल्ले-बल्ले हो गई. तथाकथित समीक्षक ने भी उन लघुकथाओं को पूरा पढ़ा भी था, कौन जानता है ?
यह मान लेने में भी कोई हर्ज नहीं है कि उस समीक्षा को पढ़ने वाले कितने होंगे. सच पूछा जाए तो प्रबुद्ध पाठक हर किसी ऐरे-गैरे-नत्थूखैरे की लिखी समीक्षा क्यों पढ़े ? सच पूछा जाए तो अमान्य ही होंगी ऐसी समीक्षाएँ.
अब आते हैं लघुकथा विधा पर. इसे विधा मानने पर ही प्रश्न चिन्ह है. डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ कहते हैं – ‘लघुकथा को विधा मानने वालें ने मौन साध लिया है और मौन स्वीकृतिलक्षणम्’. (संदर्भ-प्रतिनिधि लघुकथाएं’ वर्ष 2010).
लघुकथा आलेखों में प्राय: पढ़ने मिलता है- संवेदना लघुकथा की पहचान है.
दूसरे – सामाजिक परिवर्तन में लघुकथा का विशेष योगदान है.
ये दोनों बातें कितनी एक्सेप्टेबिल हैं, पाठक ही जानें.
जिस लघुकथा में संवेदनशीलता नहीं होगी तो क्या वह लघुकथा नहीं होगी और सामाजिक परिवर्तन तो ऐसा कुछ लघुकथा के खाते में गया नहीं है. अलबत्ता समाज में कहानी का पुरातनकाल से दखल रहा था पर वह भी कहानी, नई कहानी, समानांतर कहानी, दलित कहानी में बंटकर हाशिए पर चली गई.
‘लघुकथा एक आंदोलन है जो व्यवस्था को बदलने में सक्षम है.’ – यह भी गले नहीं उतरती. किसी लघुकथा ने किसी अंधविश्वास या रूढ़िवाद को उतारकर नहीं फेंका. अलबत्ता यह भी लिखा मिला, चाहे कहानी हो या लघुकथा, बाल कहानी-उपदेशात्मक न हो. सबक सिखाने जैसी कहानी/लघुकथा अब नहीं होनी चाहिए. यही बात पुरानी पीढ़ी के पाठक के गले नहीं उतरती. जब रचना में कोई सीख या सबक न हो तो उस कपोल कल्पित को पढ़ने में फायदा क्या है? दिया तले अंधेरा कहीं इसी को न कहते हों.
अब लघुकथा के विषय भी चुकने लगे हैं. लघुकथाकारों ने ढूंढ-दूंढकर विषयान्तर्गत लघुकथाएं लिख डाली हैं. एक लघुकथा दूसरी लघुकथा में घुसपैठ करने लगी है.
उत्तराखंड रुड़की की पत्रिका “अविराम साहित्यकी’ ने अपने जनवरी-मार्च 2013 के अंक में एक बहस “लेखन में मौलिकता की समस्या और साहित्यिक चोरी’ पर एक परिचर्चा का आयोजन किया था. पत्रिका के संपादक डॉ. उमेश महादोषी की चिंता सबके सामने हैं. उक्त परिचर्चा में विविध विचार पत्रिका के अंक (जुलाई-सितंबर 2013) में प्रकाशित हुए थे. मेरे अपने विचार भी उसमें शामिल हुए थे.
विश्व साहित्य में चेखव, ओ हेनरी, मोपांसा, सआदत हसन मंटो तुर्गनेव, खलील जिब्रान, आस्कर वाइल्ड, मार्कट्वेन, शेक्सपियर, कार्ल सेंडबर्ग, माधवराव सप्रे, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, प्रेमचंद, ओर्लोस आदि. हमारे पुरोधा जो अपनी लघुकथाओं से भूत-वर्तमान-भविष्य के बीच सामंजस्य बैठा गए हैं उनमें हम कितना इजाफा कर पाए हैं या कर पाएंगे …. और प्रश्न यह भी है कि क्या तब उनकी लघुकथाएं भी किन्हीं योग्य समीक्षकों की नजरों से गुजरी होंगी या नहीं.
अंत में मेरा निवेदन है कि लघुकथा जो आज तक पूर्ण विधा नहीं बन पाई, जिसके पास आज भी समीक्षक नहीं और जिसका आकार बिना किसी ठौर-ठिकाने का है वह लघुकथा उधार की बैसाखी पर कितनी देर टिकी रह पाएगी. सभी गौर फरमाएं यह मेरी इल्तिजा है. इति.
© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
शानदार अभिव्यक्ति