श्री राकेश कुमार
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 15 – देशीय उड़ान ☆ श्री राकेश कुमार ☆
यात्रा के अगले चरण में शिक्षा के लिए विश्व प्रसिद्ध शहर बोस्टन जाने के लिए घर बैठे ऑनलाइन टिकट बुक कर, विमानतल में स्कैन द्वारा स्वचलित बोर्डिंग पास प्राप्त करने का प्रथम अवसर था, तो पुराने समय की याद आ गई, जब प्रथम बार एटीएम से राशि प्राप्त कर जो खुशी मिली थी, आज भी कुछ ऐसा ही आभास हुआ।
एक छोटे संदूक को विमान के अंदर ले जाने के अलावा बड़े संदूक का अतिरिक्त भुगतान करना पड़ा, जो हमारे जैसे यात्रियों के लिए अचंभा था।
विमानतल पर देश के भीतर यात्रा पर भी कड़ी जांच के मद्दे नज़र” जूता उतार” जांच से बचने के लिए हमने अपनी बाटा की हवाई चप्पल का ही उपयोग किया, क़मर बेल्ट जांच से भी बचने के लिए नाड़े वाले पायजामा के साथ कुर्ता पहन कर देशी परिधान ग्रहण कर लिया। श्रीमतीजी ने आपत्ति उठाते हुए कहा आप अकेले व्यक्ति विमानतल पर ऐसे परिधान पहन कर अलग से दिख रहें हैं। तभी वहां प्रतीक्षा रत एक अस्सी वर्ष की उम्र वाले व्यक्ति पुस्तक पढ़ते हुए दिख गए,वो भी सब से अलग दिख रहे थे।
सबसे आश्चर्य हुआ एक युवती ऊन से कुछ बुनाई कर रही थी। हमारे यहां तो अब ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं भी हाथ में ऊन और सलाई लिए हुए भी नहीं नज़र आती है। अमेरिका जैसे विकसित देश में हवाई यात्रा के समय नवयुवती के हाथ में ये देखकर लगा कि हस्तकला कभी समाप्त नहीं हो सकती।
बोस्टन उतरने के पश्चात जब बड़े संदूक का इंतजार करते हुए, वहां उपलब्ध ट्रॉली खींची, तो उसको दीवार से अटका हुआ पाया, क्योंकि छः डॉलर शुल्क भुगतान के पश्चात ही सुविधा का उपयोग संभव था। हमारे पास खींचने के लिए अब छोटा और बड़ा दो संदूक थे, वो तो अच्छा हुआ जो नीचे चक्के लगे हुए थे। वैसे हम लोग तो “चमड़ी चली जाय पर दमड़ी ना जाय” को मानने वाली पीढ़ी से जो हैं।
© श्री राकेश कुमार
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