(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज राजभाषा दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक विचारणीय आलेख हिन्दी भाषा और संबद्ध बोलियों की विकास यात्रा। राजभाषा दिवस पर प्रस्तुत इस अलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )
☆ राजभाषा दिवस विशेष – हिन्दी भाषा और संबद्ध बोलियों की विकास यात्रा ☆
एक छोटा बच्चा भी जो कोई भाषा नही जानता चेहरे के हाव भाव व स्पर्श की मृदुलता से हमारी भावनायें समझ लेता है. विलोम में अपनी मुस्कान. रुदन या उं आां से ही अपनी सारी बातें मां पिता को समझा लेता है. विश्व की हर भाषा में हंसी व रुदन के स्वर समान ही होते हैं. पालतू पशु पक्षी तक अपने स्वामी से सहज संवाद अपनी विशिष्ट शैली में कर लेते हैं. अर्थात भाषा भावनाओ के परस्पर संप्रेषण का माध्यम है.
हिंदी एक पूर्ण समृद्ध भाषा है. इसके वर्तमान स्वरूप के विकास से पहले खड़ी बोली के कई साहित्यिक रूप विकसित थे, जैसे दकनी, उर्दू, हिंदुस्तानी आदि. यह जानना भी रोचक है कि हिंदी के विकास में अंग्रेजों और उनकी संस्थाओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही है. उन्नीसवीं सदी हिंदी के विकास की दृष्टि से निर्णायक सदी थी. आधुनिकता की अवधारणा और राजभाषा के सवाल से हिंदी के स्वरूप निर्धारण और विकास का गहरा संबंध है. उन्नीसवीं सदी के नवजागरण के पुरोधाओं, जैसे राजा शिवप्रसाद, भारतेंदु, बालकृष्ण भट्ट, अयोध्याप्रसाद खत्री, महावीर प्रसाद द्विवेदी, देवकीनंद खत्री आदि का हिंदी के विकास में उल्लेखनीय योगदान रहा है.
महात्मा गांधी ने हिंदी को स्वाधीनता आंदोलन की भाषा के रूप में अंगीकार कर देश को एक सूत्र में जोड़ने का काम किया था. नेहरू जी, लोहिया जी व प्रायः राष्ट्रीय नेताओ के समर्थन से हिंदी भारत की राजभाषा बनी. आज के दौर की सूचना-तकनीक की हिंदी , हमें हिंदी के भविष्य के बारे में संकेत करती है.
एक छोटे क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा बोली कहलाती है. बोली में साहित्य रचना का अभाव दिखता है. जब किसी बोली में साहित्य रचना होने लगती है और क्षेत्र का विकास हो जाता है तो वह बोली न रहकर उपभाषा के रूप में स्थापित हो जाती है. साहित्यकार जब किसी भाषा को साहित्य रचना द्वारा सर्वमान्य स्वरूप प्रदान कर लेते हैं तथा उसका क्षेत्र व्यापक हो जाता है तो वह भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो जाती है. भारत के बाहर हिन्दी बोलने वाले देशो में अमेरिका, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, यमन, युगांडा, सिंगापुर, नेपाल, न्यूजीलैंड, जर्मनी, पाकिस्तान, बांगलादेश आदि राष्ट्रों सहित दुनिया भर में हिन्दी का प्रयोग हो रहा है.
पहले भाषा का जन्म हुआ और उसकी सार्वभौमिकता और एकात्मकता के लिए लिपि का आविष्कार हुआ. भाषा की सही-सही अभिव्यक्ति की कसौटी ही लिपि की सार्थकता है. प्रतिलेखन और लिप्यांतरण के दृष्टिकोण से देवनागरी लिपि अन्य उपलब्ध लिपियों से बहुत ऊपर है.इसमें मात्र 52 अक्षर (14 स्वर और 38 व्यंजन) हैं. किंतु प्रत्येक फोनेटिक शब्द के लिप्यांतरण में हिन्दी पूर्नतः सक्षम है. हिन्दी की विकास यात्रा की विवेचना करें तो हम पाते हैं कि हिन्दी संस्कृत, प्राकृत, फारसी और कुछ अन्य भाषाओं के विभिन्न संयोजनों से निर्मित भाषाओं से जनित है. यह द्रविड़ियन, तुर्की, फारसी, अरबी, पुर्तगाली और अंग्रेजी द्वारा प्रभावित और समृद्ध हुई भाषा है. यह एक बहुत ही अभिव्यंजक भाषा है, जो कविता और गीतों में बहुत ही लयात्मक और सरल और सौम्य शब्दों का उपयोग कर भावनाओं को व्यक्त कर सकने में सक्षम है. हिन्दी की क्षेत्रारानुसार अनेक बोलियाँ हैं, जिनमें अवधी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, हड़ौती,भोजपुरी, हरयाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुमाउँनी, मगही आदि प्रमुख हैं. इनमें से कुछ में अत्यंत उच्च श्रेणी के साहित्य की रचना हुई है. ब्रजभाषा और अवधी में हिन्दी का साहित्य प्रचुरता से लिखा गया है. स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के विरुद्ध भी लोकभाषा में बहुत लिखा जा रहा है. भोजपुरी सिनेमा ने नये समय में उसका साहित्य समृद्ध किया है. इधर बुंदेली. बघेली बोलियो में भी व्यापक साहियत्यिक लेखन हो रहा है.
प्रकाशन तकनीक का विकास. कम्प्यूटर में हिन्दी व अन्य भारतीय लिपियों की सुविधाओ का विस्तार. यू ट्यूब व अन्य संसाधनो से हिन्दी व संबंधित बोलियां लगातार समृद्ध हो रही हैं. हिन्दी भाषा और संबद्ध बोलियों के विकास का मूल मंत्र यही है कि हम मूल रचना कर्म तथा अन्य भाषाओ से निरंतर अनुवाद के द्वारा अपनी भाषा की समृद्धि को बढ़ाने का कार्य करते रहें. अंग्रेजी की दासता से मुक्त होना जरूरी है. नई पीढ़ी को निज भाषा के गौरव से अवगत कराने के निरंतर यत्न करते रहने होंगे.जब हिन्दी के उपयोगकर्ता बढ़ेंगे तो स्वतः ही तकनीक का वैश्विक बाजार हिन्दी के समर्थन में खड़ा मिलेगा. हिन्दी का शब्दागार व साहित्य निरंतर समृद्ध करते रहने की आवश्यकता है.नई पीढ़ी की जबाबदारी है कि नये इलेक्ट्रानिक माध्यमो के जरिये हिन्दी व बोलियो के साहित्य की प्रस्तुति यदि बढ़ाई जावे . ई बुक्स व आडियो वीडियो संसाधनो को युवा पसंद कर रहा है हिन्दी के प्राचीन साहित्य व नई रचनाओ को इन माध्यमो में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है. जिससे हिन्दी भाषा और संबद्ध बोलियों की विकास यात्रा अनवरत जारी रहे.
© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈