श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है महान स्वतंत्रता सेनानी स्व मंगल पांडे एवं उनकी वर्तमान पीढ़ी की जानकारी देता एक देशभक्ति से ओतप्रोत ओजस्वी आलेख –yahi बाकी निशान होगा। भारत सरकार ने स्व मंगल पण्डे जी के सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – यही बाकी निशां होगा ☆
स्व जगदम्बा प्रसाद मिश्रा जी द्वारा 1916 में रचित कालजयी रचना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है – –
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा ।।
इस कथन को सत्य साबित होते देखना वास्तव में हृदय को सुखद अनुभूति कराता है। घाघरा और गंगा की पावन गोद में बसे बलिया जिले के माटी की तासीर ही ऐसी है, जहां की मातायें सिंह शावकों को जन्म देती है जिनकी घनगर्जना से दुश्मनों की छाती फटती है। वतन की आन बान शान के लिए अपनी आत्माहुति देना यहां के रणबांकुरों का शौक तो है ही, यहां की मिट्टी के इतिहास में हमारी सांस्कृतिक सभ्यताओं के ध्वजवाहक ऋषि मुनियों की गौरवगाथा भी समाहित है।
यहीं की मिट्टी से जन्म लेता है, मंगल पाण्डेय नामक रणबांकुरा फौजी जिसका जन्म १९ जुलाई सन १८२७ में बलिया जिले के नगवां में हुआ था। जिन्होंने अपने युवा काल में ३४वी बटालियन नेटिव इन्फैंट्री बैरकपुर बंगाल की पैदल सेना में सैनिक नं १४४६ के रूप में नौकरी की। अंग्रेज गोरों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन के बगावत का इतिहास रचने का श्रेय इनके हिस्से जाता है। जिन्होंने बगावत का इतिहास लिखते हुए अंग्रेज अफसरों पर धावा बोल दिया। जिसके चलते सारे भारत में स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी धधक कर जल उठी।
अंग्रेज सरकार घबरा गई औरउन्हें आनन फानन में ८अप्रैल १८५७ को फांसी दे दी गई , लेकिन वह जवान मरते मरते अपनी शहादत के बल पर अपने पदचिन्हों के बाकी निशान छोड़ गया तथा अपने कर्मों से स्वतंत्रता आंदोलन का प्रथम अध्याय स्वर्ण अक्षरों में लिख गया। उसी कुल में स्व० पदुमदेव पाण्डेय जी का जन्म हुआ , जिन्हें अदम्य शौर्य साहस कर्मनिष्ठा वंशानुगत विरासत में मिली थी। अपने कुल की उसी अक्षुण्ण परंपराको कायम रखते हुए उन्होंने सन् १९६४ स्पोर्ट्स कोटे से फौज की नौकरी की और सन् १९६५ में पाकिस्तान भारत के युद्ध में अद्म्य शौर्य साहस तथा विपरित परिस्थितियों में युद्ध लड़ कर शत्रु का संहार ही नहीं किया, बारूद खत्म होने पर भी रण नहीं छोड़ा, बल्कि अदम्य साहस का परिचय देते हुए दुश्मन की निगाहें बचा अपने अनेक घायल साथियों को पीठ पर लाद उन्हेंअस्पताल तक ला उनकी प्राण रक्षा की। जिसके बदले उन्हें भारत सरकार द्वारा स्वर्ण पदक दे सम्मानित किया गया।
उसके ठीक छह साल बाद सन् १९७१ में फिर एक बार शत्रुओं ने युद्ध थोपा । इस बार फिर उस वीर जवान ने अपनी टुकड़ी के साथ अदम्य साहस का परिचय देते हुए रण में दुश्मन का मानमर्दन करते हुए विजय श्री का वरण कर विजेता बन रण से लौटे। सन् १९७३ में उन्हें एक बार फिर उत्कृष्ट सेवा के बदले कांस्य पदक हेतु चुना गया,जो उनके समर्पण कर्तव्यपरायणता का सम्मान है और अंत में अपना सेवा काल सकुशल पूरा कर सन् १९८० में सेवा निवृत्त हो गये । सकुशल जीवन यापन करते हुए २६ अगस्त सन् २०१७ को परलोक गमन करते हुए अपने त्याग तपस्या मानव सेवा की उत्कृष्ट मिसाल पेश कर अपने पदचिन्हों का निशान बाकी छोड़ गये जो सदियों सदियों तक लोगों की ज़ेहन में बसा रहेगा, अपनी लेखनी के माध्यम से हम मां भारती के उस लाल को भावभीनी विनम्र श्रद्धांजली अर्पित करते हैं।
© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”
संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208
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