श्री राकेश कुमार
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “सात समंदर पार”।)
☆ आलेख ☆ सात समंदर पार – भाग – 1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
बैंक की सेवा के समय में सात वर्ष पूर्व सात समंदर पार जाकर अमेरिका जाने का अवसर मिला था। बैंक द्वारा प्रदत्त यात्रा सुविधा का लाभ उठाते हुए विश्व के सबसे बड़े हथियार उत्पादक देश को देखने की इच्छा पूरी हुई थी।
ऐसा कहते हैं “किसी भी यात्रा/ भ्रमण से प्राप्त होने वाले आनंद का आधे से अधिक तो आप उसकी तैयारी में ही उठाते हैं”बात एकदम सत्य और हम सबका अनुभब भी ये ही कहता हैं। अब जब बहुत दूर जाना हो सामान ले जाने वाला संदूक (सूटकेस) भी बड़ा और सुविधाजनक होना चाहिए। दुकानदार ने सौ से अधिक नमूने विभिन्न रंग, आकर, आयतन में दिखा दिए। पहले बिना चक्के के संदूक जैसे सूटकेस आए। उसके बाद दो चक्के के सूटकेस ने तो रेलवे स्टेशन पर कुली का कार्य करने वालों की कमर ही तोड़ दी थी। तत्पश्चात चार और अब तो आठ चक्के के सूटकेस भी खूब चल रहे हैं। दुकानदार हमको समझा रहा था, साहब मक्खन की माफिक इक दम चिकनी चाल से सूटकेस भागेगा। वो यहां भी नहीं रुका, और कहने लगा कि जैसे कार में भी अब पॉवर व्हील आ गए है, और बड़े ट्रक में भी बीस चक्के लगने लगे है, उसी प्रकार से सूटकेस भी अब हाई स्पीड मॉडल के हो गए हैं।
जब साठ के दशक में चमड़े के सूटकेस आरंभ हुए तो वो सिर्फ रईस और धनाढ्य व्यक्तियों द्वारा ही उपयोग होता था। सत्तर दशक की समाप्ति के समय वीआईपी कम्पनी ने इसको घर घर तक पहुंचा दिया। सन अस्सी में हमारे बैंक के साथियों के विवाह में सबसे अधिक इसको भेंट स्वरूप दिया जाता था।
वजन में हल्के और रंगो की चकाचौंध से इनकी पराकाष्ठा संदूक तक को निगल गई हैं। अब सूटकेस खरीद ही लिया है, तो यात्रा की जानकारी अगले भाग में जारी रहेगी।
क्रमशः…
© श्री राकेश कुमार
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