॥ मार्गदर्शक चिंतन॥
☆ ॥ स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
परमात्मा ने प्रकृति को सृजन, विकास और समृद्धि देने का सामथ्र्य दिया है। एक छोटे से बीज को प्रकृति अपनी गोद में ले अंकुरित और क्रमश: विकसित कर एक विशाल वृक्ष के रूप में उभार प्रदान करती है जो कभी अनेकों श्रान्त पथिकों को छाया, सुरभि और सुमधुर फल देकर सुख और शांति देने वाले बन जाते हैं। प्रकृति उन सबका जो उनसे स्नेह करते हैं, माता के समान पालन-पोषण करती और उन्हें संसार में समृद्धि दे जनसेवा के लिये सुयोग्य और सक्षम बना सुख का वरदान देती है। परन्तु स्वार्थी धनलोलुप मनुष्य ने प्रकृति की गोद में खेलते खाते भी इस तथ्य को नहीं समझा और आधुनिकता के मोह में अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मार ली है। प्रकृति जो परमात्मा की प्राणी मात्र के लिये हितकारी परम शक्ति है, को मनुष्य अपने स्वार्थ के लिये नष्ट करने में लगा है और सुख प्राप्ति के स्थान में नये-नये दुखों को अनजाने में आमंत्रित करता जा रहा है। प्रकृति के उपकारों के प्रति आभारी न होकर अशिष्ट मानव ने उसका केवल दोहन किया है, इसी से आज जल, भूमि, वायु और नभ के प्रदूषणों से पीडि़त है। लोग समझते हैं कि सुख, धन संचय में है, ऊँची अट्टालिकाओं वाले गगनचुंबी भवनों में मोटे प्रतल्पों वाले पलंगों और सोफों में है। साधन सम्पन्न सजे-धजे कमरों में है। इसलिये वह अपना भण्डार जोड़ता जाता है। परन्तु वास्तविकता इससे बहुत भिन्न है। यदि सुख भव्य भवनों और समग्र एकत्रित संसाधनों में होता तो अनेक निवासी उन्हें छोडक़र एक दो दिन के लिये ही सही अपनी कारों में भागकर किसी सौंदर्यपूर्ण प्राकृतिक स्थल, निसर्ग द्वारा सुसमृद्ध वन स्थलों, पहाड़ों और पिकनिक स्पाटों की ओर क्यों जाते?
संसार में जिसने जन्म पाया है, जन्म के साथ ही कुछ विशेष गुण-धर्म भी पाये हैं। उन गुण-धर्मों के विपरीत हठात् प्रयत्नों ने प्राणियों की सुख-शांति को नष्ट कर नई समस्याओं को जन्म दिया है। आज का प्रगतिशील तथाकथित सुसमृद्ध विश्व हर क्षेत्र में इसका सहज अनुभव कर रहा है। परन्तु सात्विक पथ से भटककर आज मनुष्य नये रास्ते पर इतना आगे आ गया है कि अब पुराने पथ पर लौटना ही उसे भटकाव नजर आता है और असंभव भी है।
प्रकृति ने जिस कठोर और कोमल जीवन तंतुओं से विश्व का ताना बाना बुना है, उसका सूक्ष्म निरीक्षण परीक्षण और विश्लेषण बड़ा ही मनोज्ञ एवं आल्हादकारी विषय है। ऐसा क्यों है किसी के गुणधर्मों में कठोरता और किसी में अपार कोमलता है। शायद यह इसलिये है कि प्रत्येक की भूमिका निर्धारित है जो दूसरों की भूमिका से अलग है, जो सृष्टि की संचालन व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। अपने गुण-धर्मों के माध्यम से ही वह कुछ अनूठा कर सकता है। जो अन्य नहीं कर सकते। क्या सूर्य और चांद पर्वत और नदियां, वृक्ष और लतायें, पाषाण और पुष्प चट्टानें और सागर की जलोर्मियां इस भिन्नधर्मिता का स्पष्ट उद्घोष नहीं करतीं? क्या उनके जीवन उद्देश्य भिन्न भिन्न नहीं है? अपने प्रकृतिदत्त गुणधर्मों का परित्याग हर कोई अपनी जीवन यात्रा सुचारू ढंग से पूरी कर सकता है? अपने गुणधर्मों का प्राकृतिक स्वभाव का त्याग न केवल हानिकारक है वरन् भयावह भी है। शेर घास नहीं खा सकता और मृग मांसाहार नहीं कर सकता। गीता में कहा है- ‘स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।’
जब भी मर्यादाओं का अतिक्रमण होता है कोई विस्फोट होता है और यह प्रकृति के विरुद्ध अनर्थकारी ही होता है। मर्यादाओं की रक्षा आवश्यक है, क्योंकि उसमें न केवल सुख है वरन् सुषमा और आल्हाद भी है और वह मंगलदायी वातावरण के सृजन की क्षमता भी रखती है।
अत: प्रकृति के प्रति प्रेम और सौंदर्य की भावना वास्तविक सुख के लिये नितांत आवश्यक है। प्रकृति समन्वयवादी है और यही वह इन सबसे चाहती है, जिन्हें उसने उपजाया है। आज समन्वय के अभाव ने ही संसार में नये-नये टकरावों और कष्टों को जन्म दिया है। विविधता में एकता की भावना से मनुष्य सुखी रह सकता है और सभी को यथोचित उत्कर्ष के अवसर मिल सकते हैं।
सघन वनों में विभिन्न वनस्पतियों और विरोधी स्वभाव के प्राणियों का आवास और समृद्धि मनुष्य को सही सीख और हिलमिल के रहने की सूझ क्यों नहीं देता? आज खेमों में बंटे विश्व को- ‘जियो और जीने दो’ की पावन भावना की जरूरत है।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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सरस शैली में उत्कृष्ट आलेखन , शाब्दिक धाराप्रवाह से ओत-प्रोत प्रस्तुति । लेखक महोदय को कोटि कोटि नमन साधुवाद।