॥ मार्गदर्शक चिंतन॥
☆ ॥ आध्यात्मिक चेतना आवश्यक ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
‘मनुष्य’ शब्द सामान्यत: मनुष्य शरीर की आकृति का बोध कराता है, परन्तु साथ ही इसी संदर्भ में उसके सामाजिक व्यवहारों की भी छवि उभरती है। शरीर द्वारा संपादित होने वाले सभी वैयक्तिक तथा सामाजिक व्यवहारों का परिचालन मन और बुद्धि के माध्यम से वह अदृश्य चेतना शक्ति करती है जिसे आत्मा कहते हैं। सम्पूर्ण जीवन भर सोच-विचारों और क्रिया कलापों की उधेड़बुन इसी चेतना का खेल है। यह चेतना सभी छोटे-बड़े प्राणियों में विद्यमान है। बिना इस चेतना या आत्मा के शरीर को शरीर नहीं शव कहा जाता है। मनुष्य तभी तक सक्रिय है जब तक उसके शरीर में आत्मा है। इससे यह बहुत स्पष्ट है कि मनुष्य केवल शरीर नहीं है, शरीर में स्थित अदृश्य आत्मा ही प्रधान है। मृत्यु क्यों होती है? और तब आत्मा इस शरीर को पुराने वस्त्र की भांति छोडक़र कहां और क्यों चली जाती है? यह प्रश्न आदिकाल से अब तक अनुत्तरित है और शायद आगे भी रहे। विभिन्न धर्मावलंबियों, मनीषियों ने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार इस रहस्य के भिन्न-भिन्न उत्तर देने के प्रयास किये हैं, किन्तु गुत्थी सुलझ नहीं पाई है। इसी अनसुलझी गुत्थी को बहुतों ने परमात्मा की माया कहा है। माया ही संसार में जन्म-मरण, सृजन और ध्वंस का चक्र चालू है और प्रत्येक प्राणी इस चक्र में फंसा ऊपर-नीचे घूम रहा है। जीवन यात्रा में शरीर और आत्मा उसके साथ हैं जो एक दूसरे के पूरक हैं। आत्मा सक्षम शक्ति है जो जीवन पथ में आने वाली समस्याओं का निराकरण कर अभिनव मार्ग बना सकती है। शरीर उनका साधन है। जीवन में विविधता है। किन्हीं दो व्यक्तियों के जीवन में समानता से अधिक विभिन्नता है। एक सुखी है दूसरा दुखी, कोई बड़ा है कोई छोटा, एक विचारवान ज्ञानी है, दूसरा अज्ञानी तथा कोई सम्पन्न है तो कोई विपन्न। किन्तु अनेकों विरोधाभासों के बीच भी एक अनुपम समानता है कि संसार का प्रत्येक प्राणी आनंद व सुख की कामना करता है और निरंतर उसी की प्राप्ति के प्रयत्नों में रत दिखता है। सुख प्राप्ति के लिये सही प्रयत्न करने को स्वस्थ शरीर और स्वस्थ संतुलित आत्मा का होना आवश्यक है। शरीर के स्वास्थ्य के लिये तो जानकारी, चिकित्सक, चिकित्सालय और औषधियां उपलब्ध है, किन्तु आत्मा और उसकी रुग्णता की जानकारी बहुत कम को है। बारीकी से अवलोकन करने पर समझ में आता है कि बहुसंख्यक आत्मायें अस्वस्थ हैं। इसी का परिणाम समाज में बढ़ते अनाचार, अत्याचार, दुर्विचार और व्यभिचार हैं जो समाज के कष्टों को बढ़ा रहे हैं और मानवता के विकास में बाधक हैं। स्थिति में सुधार के लिये शरीर और आत्मा का उपचार साथ-साथ होना चाहिये। यही विकास के लिये शरीर को भौतिक स्वास्थ्य तथा सुख-सुविधायें जरूरी हैं, तो उसमें निवास करने वाली शक्ति सवरूपा आत्मा को आध्यात्मिक ज्ञान और पावनता की आवश्यकता है। आज इसी की कमी है। केवल भौतिक विकास के दृष्टिकोण ने आध्यात्मिक विज्ञान के क्षेत्र में आवश्यक रुझान में अवरोध उत्पन्न कर दिया है और जीवन को असंतुलित कर रखा है। भौतिक विचार वाले उदारमना, भ्रातत्वभाव रखने वाले नागरिक उपलब्ध हो सकेंगे तो अनाचारों पर रोक लगाने में सक्षम होंगे। इसलिये प्रत्येक घर परिवार में आध्यात्मिक चेतना का प्रकाश परम आवश्यक है।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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आत्मिक चिंतन से ओत प्रोत जीवन का यथार्थ दर्शन कराती है ये रचना। बधाई अभिनंदन अभिवादन।