॥ मार्गदर्शक चिंतन॥
☆ ॥ सुख की खोज ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
इस धरती पर सुख की कामना हर प्राणी करता है। उसके सारे क्रियाकलाप प्रत्यक्ष हों या परोक्ष उसे सुख प्राप्ति की दिशा में ही आगे बढ़ाने के लिये चलते रहते हैं। उसकी पंच ज्ञानेन्द्रियां जिनके द्वारा वह अनुभव पाता है या रस प्राप्त करता है, उसे किसी न किसी सुखानुभूति के लिये काम करने में लगाये रहती हैं। देखने, सुनने, संूघने, स्वाद पाने या सुखद स्पर्श प्राप्त करने की लालसा व्यक्ति के मन में निरन्तर रहती है। कभी एक इच्छा बलवती होती है, कभी दूसरी। कामना के इसी प्रपंच में फंसा जीवन एक मकड़ी की भांति नित नये जाल बुनता रहता है व एक दिन उसी में उलझकर समाप्त हो जाता है। वास्तव में ये सभी इन्द्रियों के सुख तात्कालिक और क्षणिक होते हैं तथा पुनरावृत्ति की प्यास बढाने वाले होते हैं। सुखों को जितना उपभोग होता है प्यास उतनी ही अधिक गहराती जाती है और फिर फिर प्राप्ति की आकांक्षा बढ़ती जाती है। रसोपभोग की पुनरावृत्ति एक दुर्निवार रुग्णता या विकार का रूप ले लेती है।
व्यक्ति में सुख प्राप्ति की इच्छा जन्मजात व स्वाभाविक है। वह उसी की खोज में व्यस्त रहता है। बारीकी से देखने पर समझ में आता है कि आत्महत्या करने वाला व्यक्ति भी ऐसा सब सुख की प्राप्ति के लिये ही करता है। अपने तात्कालिक असहय दुखों से मुक्ति पाना भी तो सुख पाने की दिशा में बढऩा ही है। जब से संसार का सृजन हुआ है तब से जन्म लेने वाले प्रत्येक प्राणी का जीवन क्रम उसी रीति-नीति पर चलता आया है। वह है सुख की कामना- प्रयत्न-प्राप्ति-रसोपभोग-अतृप्ति-क्रमिक शारीरिक क्षय और विनाश। तथाकथित सुख पाकर भी सुख पाया नहीं जाता। सुख प्राप्तिकी नित्य कामना कभी पूरी नहीं होती। इसका सरल अर्थ यही है कि सच्चा सुख जिसे हर व्यक्ति चाहता है इस संसार में कहीं नहीं है। यदि वह चाहिये हो तो उसकी खोज कहीं अन्यत्र की जानी चाहिये।
सुख के स्वरूप में भी व्यक्तिगत रुचि के अनुसार भिन्नता स्पष्ट दिखाई देती है। किसी को खाने में, किसी को गाने में, किसी को संग्रह में, किसी को विग्रह में, किसी को दान में, किसी को सम्मान में, और ये भी व्यक्ति की अलग-अलग मनोदशाओं पर विविधता लिये हुये। भिन्न रुचिहि लोभ:। जितने लोग उतनी उनकी रुचियों और सुख लालसाओं में भिन्नता। एक व्यक्ति धनी मानी होकर भी दुखी रहता है और दूसरा निर्धन होकर भी सुख की नींद सोता है। यह सिद्ध करता है कि सुख बाह्य उपलब्ध साधनों से प्राप्त नहीं होता, आंतरिक मनोवृत्तियों से मिलता है। अगर ऐसा है तो सुख का मूल उत्स मन ही है। मन में ही उसकी खोज की जानी चाहिये। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है- ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’। अर्थात् जीव आत्मा परमात्मा का अंश है। परमात्मा सत् चित आनन्द रूप है इसलिये उसका अंश आत्मा में भी वही गुण स्वभाविक है।
सच्चे सुख-परम आनन्द जो नित्य है, को पाने के लिये आत्मज्ञान चाहिये, आत्मा को समझना जरूरी है, अपने वास्तविक स्वरूप को समझने के लिये अपने अन्तकरण को टटोलना, भीतर झांककर देखना आवश्यक है। जिसे अपने अन्तकरण में परमानंद ईश्वर के दर्शन हो गये उसे संसार तृणवत दिखता है और मनमंदिर में परम चिन्तन शांति और सम्पूर्ण सुख प्राप्त हो जाता है। सुख का भंडार अपने मन में ही है बाह्य आडम्बरों में नहीं अत: अन्तर्मुखी हो, सुख के हेतु अपने भीतर ही खोज की जानी चाहिये। यदि दुनियां के प्रपंच से हटकर मन शुद्ध और शांत हो गया, तो प्रभु के दर्शन सुलभ है और सब सुख प्राप्त हो जाना कठिन नहीं। कबीर कहते हैं-
मन ऐसो निर्मल भयो जैसो गंगा नीर।
पीछे पीछे हरि फिरें कहत कबीर कबीर॥
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
अति उत्कृष्ट सारगर्भित प्रस्तुति , मानव जीवन के निहितार्थ तलाशती है यह रचना, जो लेखक के ज्ञान रचनाधर्मिता अध्ययन के स्तर को दर्शाती है , लेखक महोदय को कोटि कोटि बधाई अभिनंदन सादर प्रणाम।द्वारा——
सूबेदार पाण्डेय कवि आत्मानंद
मोबाइल 6387407266