॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ सेवा का प्रतिफल ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

जिस मार्ग से पैदल तीर्थयात्री प्रयागराज को जाते थे वहीं पर एक छोटा सा गांव था। गांव में एक किसान का घर था। किसान धार्मिक वृत्ति वाला था। यात्रियों की सुविधा के लिये उसने अपने घर के पास मार्ग में एक कुटिया बनवा दी थी और वहीं एक कुआं खुदवा दिया था। अभिप्राय था कि थके हारे तीर्थयात्री मार्ग में आवश्यकतानुसार थोड़ा विश्राम कर लें। प्रतिदिन किसी एक यात्री को वह अपने घर में नियमित रूप से भोजन भी कराता था। विचार था कि कोई भूखा यात्री प्रसाद पा ले। इसे ही वह बड़ा पुण्य मानता था। यही उसकी सेवा थी। यही उसकी तीर्थयात्रा थी।

किसान का बड़ा लडक़ा इस व्यय से अप्रसन्न था। वह इस सेवा को परिवार पर अनावश्यक बोझ समझता था। चूंकि किसान परिवार गरीब था, आमदनी का जरिया कृषि के सिवा कुछ था नहीं। कभी कभी खेती से अन्न कम उपजता था, इसलिये लडक़ा प्रतिदिन एक अतिथि के अतिरिक्त भोजन को परिवार पर बड़ा बोझ मानता था। उसकी दृष्टि में उनकी ऐसी सामथ्र्य नहीं थी कि ऐसी सेवा करता रहे। इसलिये लडक़ा अपने पिता को ऐसा परोपकार करने से रोकता था। वह पिता से मतभिन्नता के कारण अप्रसन्न था। परन्तु वृद्ध पिता अपनी आन्तरिक भावना के कारण तीर्थयात्रियों की सेवा करने का संकल्प ले चुका था, इसीलिये पुत्र के विरोध के बाद भी यह सेवा का कार्य बराबर करता था।

एक दिन पिता को किसी रिश्तेदार के यहां शादी में दूर ग्राम को जाना पड़ा। उसने जाते समय बेटे से कहा कि वह उसकी नियमित सेवा को जारी रखे तथा किसी एक तीर्थयात्री को प्रतिदिन भोजन कराता रहे। उसका विश्वास था कि परोपकार और यथासंभव सेवा ही जीवन में सुखदायी होती है। सेवा के लाभ को और जीवन में सेवा के महत्व को पुत्र समझे। उसने लडक़े को एक घड़ा दिया और कहा कि प्रतिदिन एक व्यक्ति को भोजन कराके उसका आशीर्वाद ले और उसके आगे तीर्थयात्रा हेतु निकल जाने के बाद उस घड़े में एक कंकड़ डाल दे। प्रतिदिन वह ऐसा करता रहे और कंकड़ डाल देने के बाद घड़े को ढांक दे। खोलकर कभी न देखे।

ऐसा करने से शादी से वापस आने पर वह कंकड़ों की गिनती कर जान सकेगा कि पुत्र ने उसके सूने में कितने यात्रियों को भोजन कराया। पिता की इस बात को मानकर अपनी इच्छा के विपरीत भी पिता की आज्ञा का पूरा पालन किया। एक व्यक्ति को भोजन कराने के व उसके चले जाने के बाद पुत्र घड़े में प्रतिदिन एक कंकड़ डालता रहा। कुछ दिनों बाद पिता वापस आया। उसने पुत्र से पूछा कि क्या वह बतलाये गये नियम का पालन करता रहा? पुत्र के ‘हां’ कहने पर वह खुश हुआ और उसने घर के सब लोगों को इकट्ठा कर उनके सामने घड़े को लाकर उलटने को कहा। कंकड़ों को गिनने का जब क्रम सबके सामने जारी था तब उनमें एक सोनेू की मोहर भी निकली। सब चकित थे कि डाले तो कंकड़ थे- यह मोहर कहां से आई? पिता ने पुत्र और परिवार को समझाया कि वह मोहर किसी भगवतभक्त पुण्य-आत्मा द्वारा दिये गये आशीष का परिणाम है, जो उस भूखे और प्यासे भक्त ने जल-भोजन और आवास की सुविधा से तृप्त होकर उस परिवार को दी होगी।

यह देख और सुनकर पुत्र को परिवार के सभी जनों को विश्वास हुआ कि दान और सेवा का अनजाने में ही शुभ फल प्राप्त होता है। सबकी सहमति से यह सेवाकार्य किसान के यहां आगे भी सतत रूप से चलता रहा। मनोभावना से दान और सेवा का शुभ परिणाम अवश्य मिलता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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