॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ आत्मा क्या है? ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

आत्मा कोई वस्तु नहीं शक्ति है जिसका न कोई रूप है न रंग न आकार जैसे बिजली। एक ऊर्जा है, एक चेतना हे जो विशेष परिस्थिति में पदार्थों के संयोग से उत्पन्न होती है और परिस्थितियों के विघटन पर समाप्त हो जाती है। जब तक संचालित होती है हर प्रकार के संभव कार्य संपादित करती है। क्षमतायें अनेकों हैं, पर जिस कार्य में, जिस दिशा में लगाई जाती है वहीं संचालक की इच्छानुसार कार्य करती है। जैसे बिजली उत्पन्न करने के लिये विद्युत तापग्रह, जल विद्युत गृह या परमाणु विद्युत गृह हैं। वैसे ही विभिन्न शरीरों में वह उत्पन्न होती और विघटित होती है।

न कहीं से आती है न कहीं जाती है। केवल कार्य संपादिनी ऊर्जा है, जो व्यक्ति को जन्म के साथ ईश्वर से मिलती है और मृत्यु के साथ लुप्त हो जाती है या ऐसा भी कह सकते हैं कि जब लुप्त हो जाती है तो ही मृत्यु होती है। यह अवधारणा कि आत्मा शरीर छोडक़र जाती है। मेरी दृष्टि से भ्रामक है, उसका विनाश नहीं विलोप होता है जैसे किसी टार्च के सेल से शक्ति का विलोप हो जाता है या जैसे माचिस की तीली से एक बार अग्नि प्रज्वलित कर देने के बाद उसकी ज्वलन शक्ति लुप्त हो जाती है। अगर इस धारणा को सत्य माना जाता है तो फिर आत्मा की उध्र्वक्रिया हेतु पिण्डदान आदि की मान्यतायें बेईमानी है। सारे कर्मकाण्ड तो हमारी मान्यताओं पर आधारित हैं। ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभुमूरत देखी तिन्ह तैसी’। जीवन में बहुत से कार्य मान्यताओं के अनुसार ही संपादित किये जाते हैं। विभिन्न धर्मावलंबियों की विभिन्न धारणायें हैं। इसीलिये धारणाओं के भेद के कारण टकराव हैं। अलग धर्मों की तो बात क्या एक ही धर्म में अलग-अलग मत, विचार और धारणायें हैं। इसीलिये कभी भी चार व्यक्तियों के मनोभाव और विचार एक समान नहीं पाये जाते। जिसे एक धर्म सही मानता है, दूसरा उसे गलत मानता और उसका खण्डन करता है। आत्मा, रूह और सोलर की सत्ता को तो सभी मानते हैं क्योंकि वह एक सत्य है और उसकी शक्ति या सत्ता क्या है इसका अनुभव तो किया जाता है, परन्तु देखा नहीं जाता। उसके स्वरूप को समझने की कोशिश की जाती है। जब से सृष्टि है तब से उसे जानने के निरन्तर प्रयास जारी हैं और आगे भी रहेंगे। किन्तु उसकी पहेली अनसुलझी है। वह ऐसा सूक्ष्म तत्व है जो परम तत्व में एकाकार हो सकता है। इसीलिये इसको मोक्ष या निर्वाण नाम दिया गया है। गीता की मान्यता है कि-

आत्मा एक ऐसा सूक्ष्म दैवी तत्व है जिसका कभी नाश नहीं होता, किन्तु उसका पुनर्जन्म होता है और मृत्यु के उपरांत वह एक शरीर को वैसे ही त्याग देती है जेसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर नया वस्त्र धारण कर लेता है। पुराना इसलिये छोड़ देता है क्योंकि वह खराब हो जाता है। आत्मा भी इसी प्रकार पुराने शरीर को जो खराब हो गया होता है त्याग कर नया शरीर धारण कर लेती है। मृत्यु के उपरांत आत्मा को कहीं नया शरीर मिल जाता है और उसकी जीवन यात्रा निरन्तर चलती रहती है। मरणोपरांत विभिन्न धर्मावलंबियों द्वारा जो मृत व्यक्ति की अंतिम धार्मिक क्रियायें कराई जाती हैं वे समस्त रीतियां शांति प्राप्त हेतु कराई जाती हैं।

आत्मा अदृश्य है परन्तु ईश्वर के समान सक्षम तथा चेतन है। इसीलिये आत्मा को ईश्वर (परमात्मा) का अंश कहा जाता है। आत्मा और परमात्मा दोनों के अस्तित्व का आभास तो होता है पर ऊर्जा की भांति अदृश्य होने से देखा नहीं जा सकता।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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