मानस के मोती

☆ ॥ मानस में नारी आदर्श सीता – भाग – 3 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

(4)  राम के वनगमन समय राम के सीता को अयोध्या में रुकने के लिए कहने पर सीता उत्तर में कहती हैं-

मै सुकुमार नाथ बन जोगू? तुमहि उचित तप मो कँह भोगू्ï?

प्राणनाथ क रुणायनत, सुन्दर सुखद सुजान-

तुम बिन रघुकुल कुमुद विधु सुरपुर नरक समान।

जिय बिनु देह, नदी बिन बारी, तैसिय नाथ पुरुष बिनु नारी॥

मोहि मग चलत न होइहि हारी, छिनु छिनु चरण सरोज निहारी॥

बार बार मृदु मूरत जोही, लागहि ताप बयार न मोही।

पति के साथ वन जाने का कितना सशक्त किन्तु विनम्र आग्रह है उनका यह।

(5)  गंगा पार करने पर-केवट को उतराई देने के लिए राम के मन के संकोच को देखकर सीता ने-

प्रिय हिय की सिय जानन हारी, मनिमुंदरी मन मुदित उतारी।

पतिहृदय की बात को समझने वाली भारतीय आदर्श नारी ही हो सकती हैं।

(6)  चित्रकूट में पर्णकुटी में रह रहे राम सीता से मिलने जनक जी सपरिवार आते हैं सीता जी मिलती है। पिता भी अपनी ऐसी पतिपरायणा पुत्री पर गर्व से वे कहते हैं

पुत्री पवित्र किए कुल दोऊ, सुजस धवल जनु कह सब कोऊ,

सीता की मर्यादा और शील यहाँ भी दिखता है जब वे रात को माता पिता के पास भी वहाँ रुकने में संकोच करती है-

कहति न सिय सकुचत मन माँही। इहाँ रहब रजनी भल नाहीं॥

(7)  बन यात्रा में ग्राम वासिनी स्त्रियों द्वारा उत्सुकता से उनका परिचय पूछें जाने पर सीता जी का शीलपूर्ण संयत उत्तर देना भारतीय संस्कृति की मर्यादा  का आकर्षक चित्रण है। पूछा जाता है-

कोटि मनोज लजावन हारे, सुमुखि कहहु को आँहि तुम्हारे?

उत्तर में सीता कहती हैं-

सहज सुभाय सुभग तनु गोरे, नाम लखन लघु देवर मोरे

बहुरि बदन बिधु आँचल ढाँकी प्रिय तन चितइ भौंह कर बाँकी॥

(8)  रावण के द्वारा विभिन्न साम-दाम-दण्ड-भेद का प्रयोग करने पर सीता जिस तरह अपने सतीत्व रक्षा में उसे उत्तर देती है वह देखें-

तृण धरि ओट कहत बैदेही, सुमिर अवधिपति परम सनेही,

सुन दशमुख खद्योत प्रकाशा, कबहुकि नलिनी करई विकासा?

सो भुज कंठ कि तब असिघोरा, सुन सठ अस प्रमाण पण मोरा।

पतिवियोग में-

कृस तन सीस जटा एक वेणी, जपत हृदय रघुपति गुणश्रेणी,

इन सबके उपरान्त अपार कष्टों के बाद जब सीता को अग्नि परीक्षा देने के बाद अयोध्या की राजरानी बनने का अवसर मिला, तब वह एक योग्य गृहिणी की भाँति रहती दिखती है-

(9)  पति अनुकूल सदा रह सीता, शोभाखानि सुशील विनीता

निज कर गृह परिचरजा करई, रामचंन्द्र आयसु अनुसरई।

कौशल्या सासु गृह माँही सेवहिं सबहि मान मदनाहीं।

पति के प्रति आस्था विश्वास और निष्ठा की चरम सीमा तो तब है जब एक  धोबी के कथन पर राम ने सीता का परित्याग उस अवस्था में किया जब वह गर्भवती थी। तब भी वन में उन्होंने राम को नहीं अपने भाग्य को दोषी ठहराते हुए अपने को अपनी सन्तान की सुरक्षा की आशा में जीवित रखा और जन्म देकर उन्हें इतना योग्य बनाया कि वे अपने महापराक्रमी पिता श्री रामचन्द्र जी से शक्ति, गुण में, सुयोग्य बन टक्कर ले सकने को समर्थ हो सके। जब वन में कोई अन्य नहीं था तब माता सीता ने ही उन्हें पाल पोस कर उचित शिक्षा दी और भारतीय माता की भूमिका का सही निर्वाह किया।

इस प्रकार सारा जीवन कष्टï सहकर भी सीता जी ने जो भारतीय नारी का आदर्श निबाहा इसी से उन्हें जगतमाता और महासती कहा गया और तुलसी दास जी ने श्री राम के साथ मानस की रचना करने से पूर्व उनकी प्रार्थना इन शब्दों में कर उनकी कृपा और आशीष की कामना की है-

सती शिरोमणि सिय गुनगाथा, सोई गिनु अमल अनुपम पाथा,

जनक सुता जग जननि जानकी, अतिसय प्रिय करुणा निधान की।

ताके युगपद कमल मनावहुँ, जासु कृपा निर्मल मति पावहुँ॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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