सुश्री किरण राजपुरोहित नितिला

(सुप्रसिद्ध राजस्थानी एवं हिंदी साहित्यकार सुश्री किरण राजपुरोहित नितिला जी का ई-अभिव्यक्ति  में हार्दिक स्वागत है।

संक्षिप्त परिचय – राजस्थानी हिन्दी की पत्रिकाओं व समाचार पत्रों में कविता, कहानी, लघुकथा, रेखाचित्र प्रकाशित राजस्थान पत्रिका में राजस्थानी कॉलम ‘सुण री सखी’ कविता कहानी के संकलनों में स्थान । लोक-संस्कृति व लोक गीतों पर लेख। चित्रकार, रेखाचित्रकार, फोटोग्राफी शौकिया जो कवर पेज और लेखों के साथ छपते हैं। यूट्यूब व इंस्टाग्राम चैनल से लोकगीत व संस्कृति के वीडियो प्रस्तुति। दूरदर्शन पर कार्यक्रम। जोधपुर, बाङमेर आकाशवाणी प्रस्तुतियां।। जै जै राजस्थान पेज से राजस्थानी में लोकरंग, आमी-सांमी व कवि सम्मेलन लाइव के संचालन सिलसिला चल रहा है। एक नया कांसेप्ट प्रायवेट नर्सिंग होम में सर्वजन साहित्यिक लायब्रेरी को स्थापित करने पर काम कर रही है। राजस्थानी साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर से सांवर दईया पैली पोथी पुरस्कार । वीर दुर्गादास राठौड़ सम्मान राजस्थानी संस्कृति समिति से डी लिट्,  कमला देवी सबलावत पुरस्कार, डेह सृजनगाथा सम्मान,  2 पेंटिंग प्रदर्शनी जोधपुर संभाग का पहला पेंटिंग सेमिनार का आयोजन। 

प्रकाशन – राजस्थानी कहाणी संग्रह नेव निवाळी, कांठळ (राजस्थानी),  कविता संग्रह –  ज्यूँ सैंणी तितली (राजस्थानी), झर झर निर्झर (हिंदी)

हम ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से आपकी रचनाएँ साझा करने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ कथा – कहानी ☆ कब्र में जीता हुआ ☆ सुश्री किरण राजपुरोहित नितिला ☆

उसकी याद फिर तिर आई। कांच पर जमती ओस की बूंदों सी और  उसका वजूद फिर नशे  सा छाये जा रहा है। कईं दिनों की मदहोशी, बेखयाली, बेचैनी, खलिस और बेकरारी उसकी याद के साइड इफैक्ट है  जो सालों से उसी शिद्दत से मोहते भी हैं और कचोटते भी है। वह उन इफैक्ट की बाट भी जोहता है और हल्की घबराहट से किनारा भी करता रहता है। इन सालों यही होता जा रहा है बार-बार। उसे लगता कि इस खाई में गिरते ,संभलते और उठते हुए युग बीत गए। बरसों की सीढ़ियां चढ़ते हुए दिनों की कतरनों ने उन सुखद पलों से उसका कई बार खून किया है और कई बार वह खुशी से और कई बार अनमना होकर उससे गुजरा भी है।  एक बेबसी उस पर हरदम तारी रहती और वह उसमें झूमता रहता।

उसे जिंदगी की इस करवट से यही सीन दिखाई देता है। वह चाहता है कि करवट बदले और कुछ दूसरा सीन देखकर बहल जाये। भूल जाये हमेशा वाली इन भावनाओं की तेज फुहार सी रौ को जिसने उसके वजूद को उब-चूब कर दिया है। पर यह कर नहीं पाता। बरसों से खुद में जीते हुए उसकी आत्मा पर उसके निशान पड़ चुके है। उन्हें खरोंच कर उतार नहीं सकता। जाने क्या हो? खरोंच के निशानों से डरता है वह। जाने कैसा एहसास पैदा हो और जो एहसास बचे वह जाने कैसा हो? मन ने उस नये एहसास को स्वीकार न किया तो ? नये एहसास से एलर्जी  हो गई तो किसकी गोद में जायेगा। आत्मा पर छपे उसके  निशान के संचे में नया एहसास फिट ना हुआ तो वह कहीं का न रहेगा।

सोचते -सोचते उसका माथा अजीब सा भन्नाने लगा। हाथ बेसाख्ता उस पर चला गया जिससे उसे हमेशा से कोफत रही। सिगरेट सुलगाते वक्त वह आंखें तरेरती और धुंआ फूंकने से पहले दूर छिटक पड़ती। शुरू-शुरू में तो वह हंसा करता और चारों ओर छल्ले के धुंए से गोला बना देता  और बेसाख्ता कठोर हो कर कह उठता …‘‘ कुछ भी हो पर तुम मेरी हो ….‘‘। इसी बात पर वह मुग्ध हो जाती लेकिन इसमें वह ज्यादा समय तक न बंध पाती और धुंए की बदबू और हल्की  घुटन से आजाद होकर दूर होकर ही सांस लेती। एक चीज मोहती तो दूसरी चीज दूर धकेलती और मन पेंडुलम सा डोलता रहता।

दीवार के सहारे जाकर सांस लेकर ठेंगा दिखाते हुए हंसती तो वह बेचैन हो उठता। जाने कैसी कसमसाहट ऐड़ी-चोटी सुलगती कि वह समझ नहीं पाता कि क्या करे और क्या न करे । जो चाहता है वह उचित नहीं और चाहा ना कर पाये, रोक पाये उतना उसमें सब्र नहीं।

कितनी तड़प होती थी । उफ! न उठते चैन न बैठते चैन। पांचवे माले के पूर्वमुखी फ्लॅट से हजार गुना अधिक तपन वह अपनी शिराओं में महसूस करता। रात-रात भर बेचैनी में धुंए से कमरे को भरते हुए इधर से उधर और उधर से इधर सैकड़ों मील चला होगा। उसको पाने की तड़प में शिरा-शिरा मुंह बोलती थी। बाजुएं, नथुने, पैर तली, कांधे, कनपटी नारियल की चिटकों की तरह  चटका करती थी। कई बार उसे यह बात बताई। बहुत बार खड़े रहकर ही बता पाया । ऐसा कहते हुए वह उसके पास बैठा नहीं रह सकता। न ही उसकी तरफ देख ही सकता था।

तब गर्मी की तप्त दोपहरी में उन दोनों के बीच भांय-भांय करता वह पुराना पंखा मनहूस गिद्ध की तरह लगता। वह चाहता कि जब वो दोनों बात करे तब बीच में कोई ना होे। कम से कम वह  सांय-सांय,  भांय-भांय कतई बर्दाश्त न करेगा लेकिन वह मनहूस पंखा उन दोनों के दरम्यान हमेशा रहा। अक्सर उसे लगता कि उसकी तकदीर ऐसी ही है। जो न चाहे वह मौजूद रहता ही  है और उसके उलट जो चाहे वह उसके आसपास बना भले रहे , ललचाता रहे लेकिन प्राप्य नहीं बन पाता।

रुद्रिका से  जब पहले पहल आत्मा के तप्त प्रवाह को बेबसी से रुक-रुक कर  पीठ फेरे हुए बता रहा था। खुद जाने किस गड्डे में गिरता जा रहा था पर अचानक आकर उसने ही उबार लिया था। अपनी गर्दन के पिछवाड़े में उसने दो नथुनों की गरमाहट को और दो होठांे की तप्त सलाईयों को महसूसा ….पल भर भी न लगा उसे और इस एहसास का परिणाम पूरे बदन में दौड़ने लगा और दिल तेजी से धड़कने लगा। वह ऐसे ही महसूसते  हुए बैठा रह जाता तो ष्षायद ठीक रहता पर जाने कैसे और कब उसने उसे अपने से सटा लिया उसे पता ही न चला। पीछे से बांहें गले में डाले वह पूरी तरह से सटी हुई थी और वह ना जाने कहां -कहां की यात्रायें वह भर में कर आया और सुखद एहसासों से लबथब रहा। कोमलता के पहले एहसास से मुलाकात  का पहला वाकया उसके लिए सुखद भी था और अंजाना भी । घबराहट वैसी जैसी पहली परीक्षा में होती है। उस आनंद को बहुत देर तक देख कर आनंदित होना भी चाह रहा था और जल्दी ही पीकर खतम भी करना चाहा रहा था। सुख के वे पल उसे बहुत लंबे चाहिए थे लेकिन सब कुछ तेजी से पाने की चाह बलवती होते जा रही थी। बदन की हर शिरा में रुद्रिका के प्रेमिल एहसास का प्रमाण गूंज रहा था। अपनी चाह को अभी इस वक्त कोई नाम नहीं देना चाहता था। सीनियर सैकंडरी से लेकर आरपीएससी के परीक्षा की तैयारी तक सैकड़ों मुलाकातें, हजारों जज्बाती रेले आये कि जब बहते-बहते तिर गए।

उन हजारों बार की उब-चूब ने उसे जाने कैसा बना दिया। एक अलग तरह का ही। उतार-चढ़ाव उसकी धमनियों का ही नहीं जीवन का स्थायी भाव बन गया। बचपन से लेकर अब तक कई जरुरतों  को मारते-मारते उसे खुद को ही मारने की इच्छा ने ही आरपीएससी की चाणक्य कोचिंग में ला पटका।

किसी भी काम में वह खुद को इतना झोंक देना चाहता है कि खुद को देखने-महसूसने समय ही न बचे और ना ही जरुरत। ऐसा करते वह सब कुछ बदल देना चाहता है।
और तत्काल ही उसे भुवन की याद हो आई। उसके दिल को कहीं ठौर है तो रुद्रिका के बाद भुवन की पनाह में। अपनी आहों का हिसाब जब उसे थमाता है तो भले ही वह खिल्ली उड़ाये लेकिन अंत में उसकी बातों को सीरियसली लेकर देा-चार उपदेश दे बैठता है। वह भी उसे मंजूर हो जाते है। लेकिन उसका सुकून भरी दुनिया की रंगीनियत में नहीं पांच बाई दस के उस अंधेरे कमरे में ही है। दर्द भरे उकताये हुए दिल को चैन भुवन के उस कमरे में ही मिलता है। भुवन के अपणायत की याद तीव्रता भी उसे सुकून देती है। दुनिया का एक वह कोना उसे नायाब लगता ।

……उस दिन की बात भी उसने भुवन से हूबहू कही थी। बिना लाग लपेट, बेहिचक। अपने मन की बात से लेकर, रुद्रिका की भाव-भंगिमा तक, अपनी देह के बदलावों से लेकर रुद्रिका की उफ तक का हिसाब देता रहा था। वह मुंह लुकोये सुनता रहा और उसे बरजता रहा था। बीच में कई बार टोका कि बस अब वह सुन नहीं पायेगा। लेकिन वह कहां रुका था।

….इन सालों की प्रीत को ऐसे किसी पड़ाव की आवष्यकता को दरकिनार करता रहा था। लेकिन आस-पास फड़कते होंठ उसकी नस-नस को जगा रहे थे और वह जाग रहा था। उसे खींच कर सामने लाकर अपनी बांहों में घेरा तब वह बहुत  सुंदर लगी थी। हमेशा से अलग सांवली सी लड़की इतनी सुंदर हो सकती है ये जाना उसने। निहारती रही थी वह भी….। चाहता था कि कमरे की ये निहायत ही शान्ति रुक जाये और किसी मधुर कोलाहल में वे डूब जाये। और किसी तरह का शोर दोनों के आसपास ना हो। वे केवल वही सुनें जो उनसे झंकृत होकर बिखरे। इस बिखरेपन में प्रकृति की सुंदर सुरुपता किसी मंजिल की ओर बहे जा रही थी। ये रास्ते बहुत तेजी से उंचे जा रहे थे। जैसे किसी मंजिल की तीव्र तलाश हो। पहाड़, झरने, सितार, जलतरंग से गूंजते वे पल सुंदरतम हुये बीतते रहे। सम तक पहुंच-पहुंच कर उनका फिर उंचा उठना….एक दूजे को देखते हुए उस सफर को पूरे होशोहवास में जी रहे थे। यह मधुर याद का पहला सफर हमेशा याद रहने वाला था। आंखें मूंदे किसी अनदेखी दुनिया को मन की आंखों से उतर कर देख रहा था….सुन रहा था….कुछ कानों में पड़ रहा था…..मधुर लय के साथ एक और वह लय किसी वस्तु के घूर्णन की ….सांय-सांय सी। वह सुनता रहा और बहता रहा…..थमता रहा। लगातार आती सांय-सांय ने उसे उद्ववेलित कर दिया। थम कर चेतना के टेंटेकल्स को थाम कर इधर-उधर देखा । लाईट आ गई थी और हमेशा से तेज आवाज में दौड़ते हुए अपने होने को जता रहा था वो मनहूस पंखा …………………

© सुश्री किरण राजपुरोहित नितिला 

संपर्क – 139 सी सेक्टर शास्त्री नगर, जोधपुर (राजस्थान) 342003

मो. 7568068844

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈
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Shyam Khaparde

बहुत ही सुंदर कहानी, उम्दा शब्दों का चयन, बेहतरीन रचना, बधाई