श्री मनोहर सिंह राठौड़

(ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध हिंदी एवं राजस्थानी भाषा के साहित्यकार श्री मनोहर सिंह राठौड़ जी का स्वागत है।  साहित्य सेवा के अतिरिक्त आप चित्रकला, स्वास्थ्य सलाह को समर्पित। आप कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कहानी तरसती आँखें। हम भविष्य में भी आपके उत्कृष्ट साहित्य को ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे।)

जीवन परिचय 

जन्म – 14 नवम्बर, 1948

गाँव – तिलाणेस, जिला नागौर (राज.)

शिक्षा – एम.ए. (हिन्दी)  स्वयंपाठी प्रथम श्रेणी, तकनीकी प्रशिक्षण (नेशनल ट्रेड सर्टिफिकेट), एस.एल..ई.टी. स्टेल पास।

साहित्य सृजन –

  • हिन्दी व राजस्थानी भाषा की सभी विधाओं में 45 पुस्तकें प्रकाशित।
  • 30 अन्य संकलनों, संग्रहों में रचनाएं सम्मिलित।
  • 12 पुस्तकों में भूमिकाएं लिखी। अनेक पुस्तकों की समीक्षाएं लिखी।
  • लगभग 350 रचनाएं हिन्दी व राजस्थानी की श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

प्रसारण –  55 रचनाएं आकाशवाणी से प्रसारित। दूरदर्शन से प्रसारित 10 वार्त्ताओं, परिचर्चाओं में भागीदारी।

अन्य योगदान –

  • लगभग 65-70 साहित्यिक उत्सवों, सेमीनार में पत्र वाचन, विशिष्ट  अतिथि, अध्यक्षता अथवा संयोजन ।
  • पिछले 25 वर्षों से होम्योपैथी, आयुर्वेदिक, प्राकृतिक चिकित्सा तथा योग शिक्षा द्वारा अच्छे स्वास्थ्य के लिए लोगों को प्रेरित।
  • अनेक शिक्षण संस्थाओं में राजस्थानी भाषा-संस्कृति अपनाने व जीवन में सुधार के लिए मोटिवेशन लेक्चर।
  • क्षत्रिय सभा झुंझुनूं का सक्रिय सदस्य रहते हुए 2 वर्ष तक गांवों में युवा वर्ग की चेतना के लिए प्रोत्साहन लेक्चर दिये।
  • सन् 1967 से 2008 तक केन्द्रीय सरकार की राष्ट्रीय संस्था – केन्द्रीय इलेक्ट्रॉनिकी अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (सीरी) पिलानी (जि. झुझुंनूं) में सेवा के पश्चात डिप्टी डायरेक्टर (तकनीकी) के पद से सेवानिवृत्त।
  • हिन्दी-राजस्थानी साहित्य सृजन के लिए विभिन्न परिचय कोशों में परिचय सम्मिलित।
  • Who’s who of Indian writers – साहित्य अकादमी, नई दिल्ली।
  • Reference Asia – who’s who -नई दिल्ली।
  • एशिया – पैसिफिक Who’s who (vol-vi) नई दिल्ली।
  • राजस्थान शताब्दी ग्रंथ लेखक परिचय कोश, जोधपुर
  • हिन्दी साहित्यकार सन्दर्भ कोश, बिजनौर (उत्तर प्रदेश)
  • राजस्थान साहित्यकार परिचय कोश, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर

पुरस्कार/सम्मान –  30 संस्थाओं द्वारा क्षेत्रीय, राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर) साहित्यिक योगदान के लिए, पुरस्कृत व सम्मानित।

संप्रति – पेन्टिंग, स्वास्थ्य सलाह व लेखन को समर्पित।

 ☆ कथा-कहानी ☆ तरसती आंखें ☆ श्री मनोहर सिंह राठौड़ ☆ 

गांव में यह लंबी गाड़ी तड़के ही आई थी। वैसे गाड़ियां और भी आती रहती हैं। इतनी बड़ी गाड़ी वह भी हमारे गांव के व्यक्ति की है इस अहसास से सभी का सीना चौड़ा हो रहा था। यह इतनी गहमागहमी अब सूरज के निकलने के बाद बढी है।

वैसे गांव आज जल्दी जाग गया है। जागा क्या इस घटना ने जगा दिया। सबसे पहले बिहारी की दादी उठती हैं। आठ बजे उठने वाले भी जाग गए थे। यह गाड़ी चार बजे आ लगी थी चौपाल की एक मात्र दुकान के बंद किवाड़ों के पास, यह सेठ हर गोविन्द की गाड़ी थी। चौपाल में 2-3 जगह जहां दिन में बैठकें जमती है वहां ताशपत्ती खेली जाती है। मोबाइल में नई-नई फोटुवें एक-दूसरे को दिखाई जाती हैं। यह क्रम चलता रहता है। नये पुराने किस्सों की बखिया यहीं उधेड़ी जाती है। उनमें नोन-मिर्च लगता है, जीरे का बघार लगता है फिर वह ताजा तरीन आंखों देखी जैसी, कसौटी पर कसी कथा, घर-घर की बैठकों, चूल्हे-चैकों तक पहुंच जाती है। सूरज का रथ सरकाने को दिनभर यहां कई खबरें, किस्से चलते हैं। कई बार एक खबर दिन ढलने तक लोगों के दिलों पर राज करती है। कई राज इस चौपाल की बैठकबाजों के दिलों में दफन हैं, जो कभी कभार झगड़े की नौबत आने के समय, बात टालने को उगले जाते हैं। जरा-सा उस किस्से का नाम लेते-लेते कोई समझदार या नेता टाइप व्यक्ति अपना राज खुलने के डर से उस बात को काटते हुए, उस राज उगलने वाले को आगा-पीछा समझा देता है। फिर वह आग उगलने को उद्यत व्यक्ति अपने और गांव के भले की खातिर मौन साध लेता है। यही उसकी सेहत के लिए ठीक होता है। वर्ना गुंडों का क्या भरोसा, यह मेरी मां कहा करती है। आज की यह खबर अभी घुटुरन चलत वाली स्थिति में है। गांव का भला सोचने वाले नेता, समाज सेवक जो बैठक बाज हैं, वे अभी आये नहीं हैं। ये लोग रात देर तक इन बैठकों में गांव के लोगों का भला सोचते, योजनाएं बनाते हुए इस माहौल को गुलजार रखते आए हैं। इनकी भलमनसाहत के परिणाम से, कई केस हुए, कई लोगों की जमीनें बिकी। कई लोग मुकदमों से छूटे। पुजारी बाबा हमेशा कहा करते हैं, समरथ को नहीं दोष गुसांई। यहां यह कहावत सटीक बैठती है।

हमारे गांव में तीन लोगों का वर्चस्व है। ये तीनों अलग-अलग हताई की बैठकों को आबाद करते है। लेकिन पूरे गांव के मुद्दों को निपटाने तीनों साथ देखे जाते है। इनमें पहला सोहन लाल सरपंच का गुर्गा है। यह सरपंच का सलाहकार, उसकी आंखें–उसकी पांखें यानी सब कुछ है। हेमजी अपनी बिरादरी का मुखिया माना जाता है और तीसरा कुलवीर मिस्त्री। मिस्त्री पहले काम में उलझा रहता था तब बैठक इसके घर के आगे लगी रहती। जब से बेटा नौकरी लगा, इसने काम छोड़ दिया। अब अपने मलाइदार खाने और देशी-अंग्रेजी का इंतजाम करने के जुगाड़ के साथ-साथ गांव के भले की सोचने में इस मंडली में आ मिला। गांव के भले का बार-बार इसलिए कह रहा हूं क्योकि ये लोग जब-तब किसी कांईयापन से लोगों को बरगलाने का मोहिनी मंतर जानते हैं। जब तक बात दूसरे के समझ में आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। उस समय इनकी सलाह को मानने के अलावा कोई चाल शेष नहीं रहती। खैर आठ बजे तीनों बैठको के ये घुटे हुए अखाड़ेबाज, छुटे हुए सांढ, बिन लगाम के घोड़े, रास्ते के रोड़े आ धमके। बात नये सिरे से खुलने लगी।

सेठ दीनानाथ की लाश उनके बेटे गांव की श्मसान भूमि में जलाने लाए थे।

पहला सवाल यही उठा कि ये क्यों लाए, शहर में अंतिम संस्कार क्यों नहीं किया ? एक ने आंशका प्रकट की — कोई बड़ा रोग होगा। इसके कीटाणु यहां फैलेंगे।

इतनी दूर क्यों लाए ? सोहन लाल ने सवाल दागा, इसके जवाब में एक बुजुर्ग ने अपने अनुभव को परोसा– पहले सेठ की यहां दुकान थी। हारी-बीमारी, सगाई-विवाह, बेटी-बहू की विदाई, जच्चा-बच्चा के समय गरीब का साथी बनकर यही उधार देता था बेचारा।

दूसरे ने तीखा जवाब ठोका– ” साथी क्या बनता, एकाएक दुकान थी। पहले लोग भोले थे। जमकर ठगता रहा। इसकी उधार के पीछे गरीबों की जमीनें बिक गई।”

इस पर 2-3 लोगों ने एक साथ टोका– ” अरे चुप हो जा। पहले पूरी बात तसल्ली से सुन लो पता कुछ है नहीं,  बीच में जबान पकड़ने लगा । हां काका फिर क्या हुआ ?”

इधर दूर खड़ी इस गाड़ी के आसपास सेठ के दोनों बेटों सहित शहर से आए 4-5 लोग खड़े थे। वे अब तक इधर-उधर लोगों को अपनी स्थिति बतला रहे थे। अब इस बड़े झुंड के पास वे आ गए। हाथ जोड़े, दोषियों की मुद्रा में खड़े थे। सारी घटना उनके मुख से सुनने के बाद अफवाहों को विराम लगा।

अब सारी स्थिति स्पष्ट थी। बेटे अपने पिता का अंतिम संस्कार शहर में करना चाहते थे। सेठ ने मृत्यु पूर्व अपनी अंतिम इच्छा प्रकट की थी, मुझे मरने के बाद अपने गांव की धरती पर अग्नि को भेंट करना। बस पुत्रों मेरी यही इच्छा है।

हालांकि छोटे बेटे ने उस समय पिता को व्यावहारिक पेचीदगियां समझाई थी कि गांव छोड़े इतने वर्ष हो गए। अब हमें वहां कौन पहचानेगा ? यह सुन कर शून्य में अटकी पिता की आंखों में पीछे छूटे गांव का लहराता तालाब, पनघट, ठाकुर जी का मंदिर, पीपल बरगद का विशाल पेड़– यों पूरा गांव आंखों के आगे लहराने लगा। गांव में दिवंगत हुई पत्नी की याद ने बूढी आंखों को पनियाली बना दिया।

गांव की बैठक में बात कुरेदने को एक नौजवान ने फिर पूछा–“काका बताओ ना पूरी बात।” यह सुनते ही दो बूढ़ों ने कहा कि सेठ जी गांव की शान थे। उनका जन्मभूमि से मोह होना उचित है। यह उनका अपना गांव है। वे गांव के हितैषी थे।

वहां खड़े लोग इन बूढों को तीखी नजरों से ताकने लगे। नजरों के तीखे तीरों से बिंधने से अब वे बेचारे सकपका गए कि ऐसा उन्हें नहीं कहना चाहिए था। कुछ ज्यादा ही कह गए। अब वे संकोच में डूबे जा रहे थे।

अब तक गांव के लोगों के दो ग्रुप बन गए। एक ओर के लोग कह रहे थे — सेठ ने यहां रहते हम गरीबों का खून चूसा। हमारी गाढ़ी कमाई को हथियाता रहा। उधार में दो के चार करता रहा। यहां मकान बनवाया, शहर में मकान-दुकान की। पैसों में खेल रहा है। हम लोग वहीं के वहीं। यहां इसका मकान बंद पड़ा है। किसी को रहने तक नहीं दिया। गांव कभी लौट कर आया नहीं, यहां से जाने के बाद। अब पता नहीं किस बीमारी से मरा है। कीटाणु फैलाने बूढी मरियल रोगी लाश को यहां ले आए।

दूसरे पक्षवालों ने बात काटी –” अरे ऐसी बात नहीं है। ये इतने पैसे वाले हैं, तो वहां इन्हें क्या दिक्कत थी ? बिजली के दाह संस्कार में देर नहीं लगती। बटन दबाया और लाश छूमंतर। इतना पैसा खर्च किया, गाड़ी लेकर यहां आए है। आखिर इसे अपना गांव समझा है तभी न। हमें अपना समझा सेठ ने इसलिए आखिरी इच्छा यह प्रकट की है।”

इतने में अक्खड़ जगेसर ने कहा–” सेठों का श्मसान यहां कहां है ?”

इसके बाद लंबा मौन पसर गया। एक बोला, सही कह रहा है–ठाकुरों, जाटों, मेघवालों के अलग-अलग श्मसान थे। उनमें कोई दूसरी जाति के व्यक्ति की लाश का अंतिम संस्कार नहीं हो सकता था। कुछ लोग एक ओर बेकार पड़ी रेतली जमीन में दाह संस्कार करते आ रहे है या अपने खेतों में करते हैं। अब सेठ लोग कहां करें ? किसी ने सेठ के बेटों को सरपंच के पास भेजा। इससे पहले ये लोग अलग-अलग जातियों के मुखियाओं के पास हाथ जोड़ते-मिन्नतें करते थक गए थे। सरपंच ने इस काम में उलझना उचित नहीं समझा। चुनाव नजदीक आ रहे हैं, वह किसी वर्ग की नाराजगी मोल लेना नहीं चाहता। उसने सोचा– लाश गई भाड़ में, किसी को नाराज किया और वोट कटे। आजकल विकास के नाम पर चांदी काटने का अवसर है। इस भलमनसाहत में क्या रखा है ? आखिर उसने बला टालने को एक सक्षम व्यक्ति के पास सेठ के बेटों को भेज दिया।

दोनों बेटे हाथ जोड़े वहां पहुंचे। उसने सारी स्थिति को पहचाना। दस हजार में सौदा तय हुआ। इसने कहा कुछ देर शांत रहें। मैं अपने व्यक्तियों द्वारा माहौल बनवाता हूं।

इस बार दोनों बेटे खुशी-खुशी गाड़ी के पास लौट आए। वहां बड़ी बहू को सारा हाल कह सुनाया। अब तक ये लोग आजिजी करते तंग आ चुके थे। पिता की बीमारी के चलते कल भी ठीक से नहीं खा सके थे। आज दोपहर हो आई, अब तक चाय भी नसीब नहीं हुई। दो बार पानी गटका और मुंह पर छींटे मारने से कुछ राहत मिली बस। बड़ी बहू ने तमक कर कहा, “देवरजी और मैंने पहले ही कहा था, यहीं शहर में ही कर लो– आप नहीं माने। पिताजी की आखिरी इच्छा, आखिरी इच्छा, देख लिया न उसका नतीजा। अब क्या पिताजी देखने आते ? आखिरी इच्छा को किसने सुना ? आपको अकेले में कहा था, चुप लगा जाते। बाप के आज्ञाकारी बने हो, अब भुगतो।”

बड़ा बेटा रुआंसा हो गया। वह सभी के आगे हाथ जोड़ता थक चुका था। भूख-प्यास चिंता ने निढाल कर रखा था। बनता काम वापिस कहीं बिगड़ ना जाए, इस आशंका से घबराया हुआ वह पत्नी के आगे हाथ जोड़ते हुए बोला– भागवान अब चुप कर। काम होने वाला है। थोड़ी देर शांत रह। तू बना बनाया खेल बिगाड़ेगी।

फिर वह सक्षम व्यक्ति उधर आया। इशारे से पास बुला इन्हें समझाया– बात कुछ जमती लग रही है। लोग गांव के लिए कुछ करने का कह रहे हैं। इनकी चूं-चपड़ मेट दो। स्कूल में एक कमरा सेठ जी के नाम से बनवा दें। सेठ जी होते तो वे भी बनवा देते। अब उनके नाम से बनेगा। आपके परिवार की इज्जत बढ़ेगी। हमेशा नाम अमर रहेगा।” इस विचार की तह तक जाने को दोनों भाईयों ने आंखों-आंखों में एक-दूसरे से पूछा और हामी भर ली, आखिर मरता क्या न करता वाली बात। जगेसर (वह सक्षम व्यक्ति) और सेठ के बेटों के मुख मुस्कान से खिल उठे। जगेसर कदम बढ़ाते हुए एक बार फिर भीड़ में गुम हो गया। इधर सेठ का परिवार गाड़ी के पास आया जहां ड्राईवर सुबह से अकेला खड़ा था। बहू के पास गांव की 3-4 स्त्रियां आ खड़ी हुई। इन औरतों के जेहन में सहानुभूतिपूर्वक साथ देने की भावना कम थी, असल बात की टोह लेने की जिज्ञासा ज्यादा हावी थी। खैर ! कारण कुछ भी हो इससे बड़ी बहू को अकेलेपन का दंश नहीं झेलना पड़ा।

ऐसे काम में आए हुए को अपने घर में कोई रोकने को तैयार नहीं था। अपशकुन माना जाता है। ठाकुरों और जाटों के श्मसान के बीच खाली पड़ी भूमि में यह संस्कार करवाना तय होने लगा। इसमें दोनों जातियों के लोग दबी जुबान मनाही करने लगे। जगेसर ने सेठ के परिवार द्वारा स्कूल में कमरा बनवाने का सिगूफा छोड़ा। असल में एक कमरे की सख्त जरूरत भी थी। इसके चलते बात तय होने वाली थी। इतने में एक शातिर नवयुवक खबर लाया कि जगेसर इस काम के दस हजार अलग से ले रहा है।

यकायक सारी बात वहीं बिगड़ गई। लोगों में यह दूसरी चर्चा जोर मारने लगी कि हमें पहले ही शक था जगेसर मुफ्त में किसी के घाव पर ….. तक नहीं करता, कि यह इतना धर्मात्मा बना हुआ कैसे दौड़ रहा है ? दाल में काला हमें पहले ही लग रहा था।

अब राजपूतों-जाटों के लोगों ने उस खाली पड़ी भूमि पर अंतिम संस्कार के लिए साफ मना कर दिया। कोलाहल बढ़ा।

सेठ के बेटों ने भांप लिया कि मामला फिर गड़बड़ा गया है। वे बेचारे भयभीत हो ताकने लगे। इतने में एक हितैषी ने पास आ सारी बात स्पष्ट कर दी।

भीड़ में यह बात उभर कर उछली, जो वहां खड़े हुए सभी को सुनाई दी– सेठ का परिवार यह चालाकी क्यों दिखा रहा है ? पैसे देने थे तो इस जगेसर को क्यों, सांढ घर में देते। हमें अपना नहीं समझते फिर यहां आए क्यों ?”

उस दिन एक-दो घरों में लड़की देखने मेहमान आने वाले थे, उन लोगों का काम नहीं होने की संभावना से उन्होंने अपना आक्रोश यों प्रकट किया–” ये शहरी और व्यापारी कौम बड़ी तेज होती है। ये किसी के नहीं होते। बेकार में गांव में अपशकुन कर दिया। घरों में चूल्हे नहीं जले। सभी लोग भूखे बैठे हैं। शुभकार्य भी आज के दिन टालने पडेंगे।”

दोपहर दो बजते-बजते यह स्पष्ट हो गया कि सेठ का दाह संस्कार गांव में नहीं हो सकता। भूखे-प्यासे पपड़ाये होठ लिये सभी लोग गाड़ी में फिर से सवार हुए। गांव के बूढे़-बच्चे और बहस में सक्रिय युवा, वहां चौपाल में खड़े थे। गांव में किसी आयोजन जैसा माहौल था। जगेसर और उसके साथियों के मुंह उतरे हुए थे कि रकम आते-आते खिसक कर गाड़ी में जा बैठी। बाकी लोग खुश थे कि कोई हादसा होते-होते टल गया।

जन्मभूमि में अंतिम संस्कार की आश लिए सेठ चल बसा था। उसकी लाश गाड़ी के हिचकोलों से अब ज्यादा हिलती दिखाई दे रही थी। उसे अब किसी ने नहीं पकड़ रखा था। बहू और छोटा बेटा हिकारत से पीछे छूटते गांव को देखने लगे। बड़ा बेटा अपराध बोध से ग्रसित अपनी बेबसी पर गर्दन झुकाए नीचे की ओर ताक रहा था। बड़ी बहू ने कटाक्ष करते हुए कहा, “कर दी न अंतिम इच्छा पूरी।”

गांव की चौपाल में बहस जोरों से चल पड़ी। अब कई लोगों में उत्साह चमकने लगा, वे मंद-मंद मुस्कराने लगे कि जगेसर को रुपये नहीं ठगने दिए। आज पूरे दिन चौपाल और घरों के चूल्हे-चौकों तक यह खबर हावी रहेगी।

गाड़ी दौड़ती गांव से दूर निकल चुकी थी। समय रहते आगे क्या करना है, यह दोनों बेटे सोचने लगे। ड्राईवर ने पूछा–” पहले घर चलना है या दूसरी जगह ?” इस सवाल से सभी का ध्यान टूटा। अपनी थकावट, उलझन, असमंजस की स्थिति से परेशान वे लोग बौखला उठे और तमक कर बोले — “तू चलता चल। अभी शहर ले चल। फोन से तय करते हैं, क्या करना हैं।” सभी गांव की दिशा में देखते, हारे हुए जुआरी की तरह बेबस थे। अकड़ी हुई सेठ की लाश की आँखे और ज्यादा खुली हुई मानो गांव की ओर बेबसी में तरसती हुई ताक रहीं थी।

© श्री मनोहर सिंह राठौड़ 

संपर्क – 421-ए, हनुवंत, मार्ग-3, बी.जे.एस. कॉलोनी, जोधपुर-342006 (राज.)

मोबाईल – 9829202755, 7792093639  ई-मेल –  [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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Shyam Khaparde

बहुत ही अच्छी, शिक्षाप्रद कहानी