श्री अरुण श्रीवास्तव
(ई-अभिव्यक्ति में श्री अरुण श्रीवास्तव जी का हार्दिक स्वागत है। आप भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आइये हम अपने प्रबुद्ध पाठकों से उनके पात्र ‘असहमत’ से परिचय करवाते हैं। हम साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से आपको असहमत से सहमत करवाने का प्रयास करेंगे। कृपया प्रतिक्रिया एवं प्रतिसादअवश्य दें।)
☆ मैं ‘असहमत’ हूँ …! ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
बाजार में वो दिखा तो लगा वही है पर जैसे जैसे पास आता गया तो लगने लगा कि नहीं है पर कुछ कुछ मिलता सा लगा. हमने नाम पूछा तो उसी हाव भाव में जबलपुरिया स्टाईल में बोला “असहमत ” समझ में नहीं आया कि नाम बतला रहा है या इसका मतलब ये है कि “जाओ नहीं बताना, क्या कर लोगे”. फिर भी हमने रिस्क ली और कहा असहमत क्यों सहमत क्यों नहीं, वो तो ज्यादा अच्छा नाम है.
असहमत बोला “कोई अच्छा वच्छा नहीं, सहमत होते होते उमर निकल जाती है, लोग उनको पूछते हैं जिनके आप “सहमत ” होते हैं. हमने कहा कि सहमत नहीं उनको तो चमचा, किंकर, छर्रा कहा जाता है. सहमत ने तुरंत हमारी तरफ उपेक्षित नजरों से देखते हुये कहा “ये चालू भाषा का प्रयोग हम नहीं करते, संस्कारधानी के संस्कारी व्यक्ति हैं, नमस्कार. पर आप जो बिना पहचान के हमसे अनावश्यक वार्तालाप कर रहे हैं तो आप हैं किस कृषि क्षेत्र की मूली. ” इस बाउंसर में वही झलक थी,
हमने उसके प्रश्न को ओवररूल करते हुये दूसरा प्रश्न दाग दिया “क्या तुम उसके भाई हो. (नाम के उपयोग पर कापीराइट है) “
उत्तर आया: हां गल्ती से वो हमारा भाई है पर हमने गुरुदीक्षा नहीं ली.
हमारा प्रश्न सामान्यरूप से था कि क्यों?
उत्तर बड़ा संक्षिप्त पर सटीक था “हमारे माता पिता हमारा नाम “सहमत” ही रखना चाहते थे, वही बिना मात्रा के चार अक्षर और उद्देश्य भी वही कि छोटा भी बड़े के पदचिन्हों ? पर चले पर हम तो शुरु से बागी by Birth थे तो कैसे सहमत होते, असहमत होना हमारा जन्मजात गुण है तो असहमत नाम रखने पर ही हामी भरी.
हमने कहा “आखिर सहमत तो हुये ही और बड़ों के पदचिन्हों पर चलना तो हमारे समाज में अच्छी बात मानी जाती है.
असहमत का जवाब असरदार था ” देखिये सर, अपना नाम तो आपने बतलाया नहीं और हमारे नाम का पोस्टमार्टम करने लगे. चलिये फिर भी कहे देते हैं कि अगर आदत असहमति की होगी तो लोग आपको नोटिस करेंगे, आपसे कारण पूछेंगे, हो सकता है आपका मजाक भी उड़ायें पर फिर भी पाइंट ऑफ अट्रेक्शन तो रहेंगे ही और दुनिया तो हर अच्छे, नये विचार और विचारक का मज़ाक बनाती है पर समय और प्रतिभा और संघर्षशील व्यक्तित्व हो तो आदमी गुमनामी की जिंदगी नहीं जीता, पहचान उसकी खुद की होती है क्योंकि रास्ते में बनने वाले पदचिन्ह उसकी प्रतिभा और सफलता की कहानी खुद बयान करते हैं. पीछे चलने वाले छत्रछाया में खुद सुरक्षित भले ही महसूस कर लें पर इतिहास नहीं बना पाते.
“असहमत “की बात से सहमत तो होना ही था. हमने सिर्फ यही कहा कि “असहमत भाई, बात ने गंभीर मोड़ तो ले लिया है पर अब जब भी मिलेंगे तो हास्य भी होगा, व्यंग्य भी होगा ताकि हमारे दोस्तों को भी आनंद आये. बतलाइये ठीक कहा ना. अगर अच्छा लगे तो असहमत से मुलाकात करते रहेंगे.
© अरुण श्रीवास्तव
संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈