श्री विजय कुमार
(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी की एक विचारणीय लघुकथा “इतना बदलाव कैसे?“।)
☆ लघुकथा – इतना बदलाव कैसे? ☆
राजू और दिनेश स्कूटर से कहीं जा रहे थे कि अचानक आगे से एक कार उनके ठीक सामने आ कर रुक गयी। दोनों ने एकदम से ब्रेक न लगाए होते तो अवश्य ही टक्कर हो जाती। राजू ने एक भद्दी-सी गाली निकाली, और गुस्से में स्कूटर से उतरकर कार वाले की तरफ कदम बढ़ाने ही लगा था, कि दिनेश ने उसे रोक दिया, “छोड़ न यार, हो जाता है कभी-कभी। अब सड़क पर चलेंगे तो इतना तो चलता ही रहेगा।”
“यार सीधी टक्कर हो जानी थी अभी। साले के आंखें नहीं हैं क्या? चलानी नहीं आती तो घर से निकलते ही क्यों हैं?” राजू ने फिर एक भद्दी-सी गाली दे दी।
दिनेश ने उसे चुप कराते हुए कहा, “चल रहने दे न, जाने दे। अब इतनी बड़ी गाड़ी को रास्ता भी तो चाहिए होता है उतना। यह तो मोड़ भी ऐसा है कि पता ही नहीं चलता कि आगे से कौन आ रहा है। गलती से हो गया”, दिनेश ने कार वाले को जाने का इशारा करते हुए राजू से कहा, “लिहाज किया कर कार वालों का…।”
राजू हैरानी से दिनेश को देख रहा था, और सोच रहा था, ‘यह वही दिनेश है, जो अगर कोई जरा-सा भी उसको या उसके स्कूटर-मोटरसाइकिल को छू भी जाता था, तो कार वाले से पूरी गाली-गलौच करता था, और मरने-मारने पर उतारू हो जाता था। फिर अब ऐसा क्या हो गया?’
दिनेश ने उसे स्कूटर पर बैठने का इशारा करते हुए कहा, “चल बैठ, समझ गया कि तू क्या सोच रहा है। अब अपने पास भी कार है यार, इसलिए…। थोड़ी इज्जत कर लिया कर कार वालों की, समझा।”
‘तभी मैं कहूं कि इतना बदलाव कैसे?…।’ राजू ने अपना सिर हिला दिया।
© श्री विजय कुमार
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