श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ कथा-कहानी ☆ कोहरा – भाग -2 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

(यह कहानी ‘साहित्य अकादमी’ द्वारा ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में पूर्व प्रकाशित  हुई थी।)

विजयेंद्र ने पोर्ट्रेट के लिए मोहना की अनुमति लेने की ज़िम्मेदारी स्वीकार की, फिर भी प्रतिनिधि मंडल बैठा रहा। सुगबुगाहट चल रही थी। जो कहना था, वह अब भी पूरा नहीं हुआ था। कोहरे से लिपटे पेड़-पौधों का अस्तित्व महसूस हो रहा था, लेकिन उनका रंगरूप समझ में नहीं आ रहा था!

‘‘मोहना देवी का पोर्ट्रेट उनका नाम और महाराज के चित्र के कलाकक्ष की शान के अनुरूप ही होना चाहिए।”

देसाई जी ने नज़रे झुकाकर कह, ‘‘हम चाहते हैं, यह ज़िम्मेदारी अगर आप लें तो… मतलब यह विनती है। इस पोर्ट्रेट के लिए सांस्कृतिक कला संचालनालय ने उचित मानदेय देना स्वीकार किया है।”

विजयेंद्र ने कल्पना भी नहीं की थी कि एस प्रकार का प्रस्ताव रखा जाएगा।

विजयेंद्र एक चित्रकार थे। अच्छे चित्रकार! उनके इलाक़े में लोक उन्हें अच्छा कलाकार मानते थे। उनके दादाजी, महेंद्रनाथ भी चित्रकला के शौक़ीन थे। लेकिन केवल शौक़ के लिए अपने दादाजी-जैसी कला-साधना करना उनके लिए मुमकिन नहीं था। चित्रकला उनकी  रोज़ी-रोटी का साधन बन गई थी। वे अपनी चित्रकारिता का उपयोग लोगों की माँग के अनुसार और विज्ञापन के लिए चित्र बनाने में करते थे। फिर भी ख़ालिस चित्रकारिता का छोटा सा झरना उन्होंने अपने दिल में धीरे-धीरे बहा रखा था। व्यवस्थापकीय मंडल के सदस्यों में विजयेंद्र और उनकी कला के बारे में आदर था। उनका मानना था कि किसी अन्य कलाकार की अपेक्षा विजयेंद्र इस काम के लिए अधिक योग्य हैं। लेकिन क्या वे स्वीकार करेंगे?

‘‘मैं सोचकर बताऊँगा”, विजयेंद्र ने कहा था।

विजयेंद्र के कलाजीवन की शुरुआत ही मोहना के चित्र से हुई थी। उस समय उन्होंने मोहना के रेखाचित्र निकाले थे। महेंद्रनाथ जी की नजर अचानक उन रेखाचित्रों पर पड़ी थी। अपने पोते ने वह बनाए हैं, यह जानकर वे अति प्रसन्न हुए थे।

‘‘हम ब्रश का चमत्कार नहीं दिखा सके। आप करके दिखाइए। साधना कीजिए। चित्रकारी सीखो!” महेंद्रनाथ जी ने कहा था। वे केवल कहकर रुके नहीं। उन्होंने अपने पोते का चित्रकारी सीखने का इंतजाम भी किया था। चित्रकारी सिखाने के लिए एके ब्रिटिश और एक फ्रेंच चित्रकार नियुक्त किया गया था।

विजयेंद्र हमेशा सोचते, अण्णा साहब ने उस वक्त कितनी दूरदर्शिता दिखाई थी। रियासत विलीन होने के बाद, छोटे-मोटे रियासतकारों के वारिसों की जो दयनीय स्थिती हो गई थी, वैसी अपनी नहीं हुई। कला के बलबूते पर ही शान से गुज़ारा कर रहे हैं। अण्णा साहब की पीढ़ी रियासत के विलीन होने का दर्द सीने में लिए चली गई। राजमहल में पलनेवाले चंपत हो गए। पिताजी, चाचा, चचेरे भाई-बहन, उनके पास कुछ ज्यादा बचा नहीं था। फिर भी उनका दिल राजमहल के बाहर कभी निकला नहीं था। थोड़ी-बहुत जो भी चीज़ें बची थीं, वह बेचकर उन्होंने जीवन बिताया था। लेकिन अपने ऐशोआराम और शान-बान में कोई कमी नहीं आने दी थी।

विजयेंद्र अलग हुए, क्योंकि वे पढ़ाई के लिए बाहर गए थे। देश-विदेश घूमकर आए थे। उन्होंने अपने आपको बदल दिया, लेकिन उनका दिल अब भी रतनगढ़ में ही रहता है! अपने बच्चों की ऐसी दोहरी मानसिकता नहीं है क्योंकि उन्होंने वह ऐश्वर्य, वैभव देखा ही नहीं, उपभोग किया ही नहीं। इसलिए उसके जाने का उन्हें गम नहीं हैं। रतनगढ़ रियासत विलीन हो गई और रतनगढ़ की शान ही चली गई। अब केवल रजतमहल के रूप में उसकी गौरव गाथा का ध्वज फहराता है।

‘‘जहाँ तक मुझे याद है, मोहना का पहला कार्यक्रम रजतमहल में ही हुआ था। आपको याद होगा?” देशमुख जी ने कहा।

चालीस साल पुरानी घटना विजयेंद्र की आँखों के सामने चलचित्र की तरह दिखाई देने लगी।

विजयेंद्र। रियासत के युवराज, भावी राजा! उनकी परवरिश युवराज की हैसियत से ही की गई थी। उनकी चौदहवीं सालगिरह बड़े धूमधाम से मनाई गई थी। उनका ठाठ-वाट तो उनकी शादी में भी नहीं हुआ था।

जन्मदिन के उपलक्ष में रियासत में रोशनी की गई थी। दावतें दी गई थीं। प्रतियोगिताएँ रखी गई थीं। विजेताओं को पुरस्कार दिए गए थे। तोहफ़े लिए-दिए गए थे। दूसरे दिन महल में नयनतारा के गाने के कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। पहले दिन के कार्यक्रम से विजयेंद्र थकान महसूस कर रहे थें। लेकिन उनका वहाँ रुकना जरूरी था। जन्मदिन के उपलक्ष में कार्यक्रम रखा गया था और जन्मदिन उनका था!

कक्ष सजाया गया था। कलात्मक क़ालीन बिछाए गए थे। सुंदर दीपदान जगमगा रहे थे। गाने की समझ रखनेवाले जानकार श्रोता उपस्थित थे। नयनतारा ने महेंद्रनाथ जी और श्रोताओं को प्रणाम किया। और कहा, ‘‘आज युवराज के जन्मदिन के अवसर पर, उनके सम्मान में मेरी बेटी मोहना गाना सुनाएगी। युवराज इसे हम ग़रीब का तोहफ़ा समझें।”

महेंद्रनाथ जी ने सर हिलाकर अनुमति दी। तानपुरे से सुर निकलने लगे। उस बारह साल की लड़की ने आँखें मूँदकर षड्ज लगाया, गाना शुरू किया। कितनी सुरीली आवाज़! उस मासूम लड़की की गाने की कुशलता, तैयारी और मधुर आवाज़ से श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए थे। स्वर ऐसे स्पर्श कर रहे थे, मानो शरीर पर कोई मोरपंख डुला रहा हो। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो गाने को दैवी स्पर्श है। आवाज़ में अद्भुत जादू था। विजयेंद्र की सारी थकान, ऊब ग़ायब हो गई थी। गाना सुनते हुए उनको समझ में आया कि घुड़सवारी करके लौटते समय यही स्वर उन्हें मिलते हैं और घर तक साथ देते हैं। उन स्वरों का स्रोत आज मूर्त रूप से सामने आया था। जैसे उसका संगीत स्वर्गीय है, वैसा ही रूप। उसकी ख़ूबसूरती भी मंत्रमुग्ध करनेवाली थी। उसके स्वर दिल में और रूप आँखो में भरा है।

युवराज के मन में विचारों को लहरें उठ रही थीं। मोहना आत्ममग्न होकर गा रही थी। मानो उसे सुरों का साक्षात्कार हो रहा हो और वह उसे गले से साकार कर रही हो!

मोहना ने डेढ़ घंटा गायन किया। ‘‘क्या जादू है लड़की की आवाज़ में! यह लड़की तरक़्क़ी करेगी।” महेंद्रनाथ जी ने सराहना करते हुए कहा था। उसके बाद नयनतारा का गाना हुआ ही नहीं। महाराज ने दीवान जी को बुलाकर कुछ कहा। थोड़ी देर में मोतियों से भरा स्वर्ण थाल विजयेंद्र के हाथ में दिया गया। विजयेंद्र के हाथों वह थाल मोहना को दिया गया। पल भर को नज़रें मिलीं! मोहना ने नज़रें झुका लीं, और प्रणाम करने के लिए झुक गईं।

महेंद्रनाथ जी ने नयनतारा से कहा, ‘‘तुम्हारी बेटी की आवाज़ सोना है। हमारी इस सौगात से उसके गाने का मोल नहीं हो सकता।”

माँ-बेटी दोनों कृतार्थ हुई थीं। सौगात से? नहीं-नहीं। महेंद्रनाथ जी की प्रशस्ति से!

मोहना के गले में मोतियों की तीन लड़ीवाली माला हमेशा रहती है। विजयेंद्र को किसी ने बताया था कि रतनगढ़ मे उसका पहला कार्यक्रम हुआ था। उसकी विदाई के रूप में महेंद्रनाथ जी की दी हुई मोतियों की माला है।

जन्मदिन के कार्यक्रम के बाद विजयेंद्र कई दिनों तक परेशान रहे थे। परेशानी की वजह समझ नहीं पा रहे थे। मोहना के स्वर कानों में गुँजते रहते थे। उसकी कई भावमुद्राएँ याद आतीं। कभी आँखे मूँदकर तानपुरे के तारों को छूतीं, जहाँ लय की समाप्ति और ताल का आरंभ होता है, वहाँ हाथ आगे आया हुआ, और वह पलभर की नज़रानज़र!

विजयेंद्र ने कागज़ लिए और उसको सारी भाव मुद्राएँ अंकित कर डालीं। इन रेखाचित्रों ने उन्हें और महेंद्रनाथ जी को उनके कलाकार होने का एहसास दिलाया। महेंद्रनाथ जी की नज़रों में अचानक वे रेखाचित्र आए थे। वे जान गए थे कि उनके पोते की उँगलियों में कला है। उन्होंने विजयेंद्र की चित्रकला शिक्षा का ख़ास इंतजाम किया था। उसके बाद उनमें छिपा कलाकार उभरता गया था। समझदारी से बढ़ता हुआ बड़ा हुआ था!

आगे चलकर वे पढ़ाई के लिए मुंबई आए। फिर पेरिस गए। वे जब पेरिस में थे, तब इधर रियासत विलीन हो गई थी। वे पेरिस लौटे, तब हवेलीं में बहुत कुछ बदल गया था। हड़बड़ी मची थी। उनके रेखाचित्र उनके पास थे, इसलिए सुरक्षित रह गए थे। चालीस साल पहले, विजयेंद्र में छिपे अपरिपक्व कलाकार ने मोहना-जैसी एक कलावती के कलात्मक पलों के बनाए रेखाचित्र! वह पल मोहना के कला-निर्माण का था; वैसा ही विजयेंद्र में छिपे कलाकार को जगानेवाला था। उन रेखाचित्रों के रूप में, वह आज भी उनके पास मूर्त रूप में है। विजयेंद्र के सबसे पहले रेखाचित्र, जो किसी ने देखे तक नहीं थे। शायद विद्यागौरी और बच्चों ने भीं नहीं!

मोहना आज दुनिया की मशहूर गायिका है। ट्रस्टी चाहते हैं कि रजतमहल के कलाकक्ष में उसका चित्र हो। उसके लिए विजयेंद्र उसे राज़ी करें। इतना ही नहीं, उसका चित्र भी विजयेंद्र ही बनाए। उसके लिए उचित मानदेय देने का प्रस्ताव भी रखा है।

क्या करें? अगर उसने ऐसा सोच लिया कि मुझे पैसे मिलनेवाले हैं, इसलिए मैं उसे चित्र बनाने के लिए राजी कर रहा हूँ, तो?

विजयेंद्र को लगा, कोहरा उन्हें घेर रहा है। इस कोहरे में उन्हें राह ढूँढ़नी है। किसी निश्चित दिशा में ले जानेवाली राह…

जो कभी उनकी आश्रित थी। उसका चित्र, किसी ज़माने में जो युवराज था, वह बनाए… विदाई के बावजूद, कोहरा और भी घना होने लगा।… और फिर अचानक कोहरे के उस पार से सुनहरी किरणें फैल गईं। उनके दिल से भानवाओं की लहरें उठने लगीं…

नहीं नहीं! अब इस जमाने में भी… ये कैसे सामंतशाही विचार उभरकर आ रहे हैं। आश्रित और युवराज… भला हम ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं? एक कलाकार को यह काम स्वीकार करना चाहिए।… काम नहीं… कला निर्माण!

दूसरे कलाकार के प्रति आत्मिकता, सौहार्द, उसके कला के प्रति महसूस होनेवाला सम्मान, सराहना प्रकट करने के लिए किया गया निर्माण!

मोहना का सम्मान करना है। बस! निर्णय हो गया था। विजयेंद्र को लगा, सूरज की किरणों से कोहरा छटने लगा है। राह साफ़-साफ़ नज़र आ रही है।

विजयेंद्र का मुस्कुराता हुआ चेहरा ट्रस्टी लोगों को बता रहा था कि उनका काम होनेवाला है। रजतमहल में स्वर शारदा का चित्र लगेगा और वह भी विजयेंद्र का बनाया हुआ!

 – समाप्त –

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

मो. 9403310170,   e-id – [email protected]  

संपर्क -17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments