श्री आशीष कुमार
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
एक बार एक गुरुदेव अपने शिष्य को अहंकार के ऊपर एक शिक्षाप्रद कहानी सुना रहे थे।
एक विशाल नदी जो कि सदाबहार थी उसके दोनो तरफ दो सुन्दर नगर बसे हुये थे! नदी के उस पार महान और विशाल देव मन्दिर बना हुआ था! नदी के इधर एक राजा था। राजा को बड़ा अहंकार था । वह कुछ भी करता तो अहंकार का प्रदर्शन करता। वहाँ एक दास भी था, बहुत ही विनम्र और सज्जन!
एक बार राजा और दास दोनो नदी के वहाँ गये राजा ने उस पार बने देव मंदिर को देखने की इच्छा व्यक्त की दो नावें थी रात का समय था एक नाव मे राजा सवार हुआ और दूजे मे दास सवार हुआ। दोनो नाव के बीच मे बड़ी दूरी थी!
राजा रात भर चप्पू चलाता रहा पर नदी के उस पार न पहुँच पाया सूर्योदय हो गया तो राजा ने देखा की दास नदी के उसपार से इधर आ रहा है! दास आया और देव मन्दिर का गुणगान करने लगा तो राजा ने कहा की तुम रात भर मन्दिर मे थे! दास ने कहा की हाँ और राजाजी क्या मनोहर देव प्रतिमा थी पर आप क्यों नही आये!
अरे मैंने तो रात भर चप्पू चलाया पर …..
गुरुदेव ने शिष्य से पुछा वत्स बताओ की राजा रातभर चप्पू चलाता रहा पर फिर भी उस पार न पहुँचा? ऐसा क्यों हुआ? जब की उस पार पहुँचने मे एक घंटे का समय ही बहुत है!
शिष्य – हॆ नाथ मैं तो आपका अबोध सेवक हुं मैं क्या जानु आप ही बताने की कृपा करे देव!
ऋषिवर – हॆ वत्स राजा ने चप्पू तो रातभर चलाया पर उसने खूंटे से बँधी रस्सी को नही खोला!
और इसी तरह लोग जिन्दगी भर चप्पू चलाते रहते है पर जब तक अहंकार के खूंटे को उखाड़कर नही फेकेंगे आसक्ति की रस्सी को नही काटेंगे तब तक नाव देव मंदिर तक नही पहुंचेगी!
हॆ वत्स जब तक जीव स्वयं को सामने रखेगा तब तक उसका भला नही हो पायेगा! ये न कहो की ये मैने किया ये न कहो की ये मेरा है ये कहो की जो कुछ भी है वो सद्गुरु और समर्थ सत्ता का है मेरा कुछ भी नही है जो कुछ भी है सब उसी का है!
स्वयं को सामने मत रखो समर्थ सत्ता को सामने रखो! और समर्थ सत्ता या तो सद्गुरु है या फिर इष्टदेव है , यदि नारायण के दरबार मे राजा बनकर रहोगे तो काम नही चलेगा वहाँ तो दास बनकर रहोगे तभी कोई मतलब है!
जो अहंकार से ग्रसित है वो राजा बनकर चलता है और जो दास बनकर चलता है वो सदा लाभ मे ही रहता है!
इसलिये नारायण के दरबार मे राजा नही दास बनकर चलना!
© आशीष कुमार
नई दिल्ली
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈