डॉ प्रतिभा मुदलियार
☆ कथा – कहानी ☆ ईमेल@अनजान ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆
प्रिय,
कल एक फिल्म देखने गयी थी। मराठी फिल्म। वॉक्स ऑफिस पर हिट, इस फिल्म को देखने के लिए हमारे घर का सारा महिला मंडल मुझे भी साथ ले गया। थियेटर महिलाओं की भीड से खचाखच भरा था। फिल्म महिलाओं पर आधारित है। अच्छी लगी। नहीं नहीं, चिंता न करो मैं तुम्हें कोई फिल्म की कहानी बतानेवाली नहीं हूँ। बस कुछ एक प्रसंगों और संवादो ने मेरा ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट किया था। क्योंकि पहले ही मैं रिलेशनशिप को लेकर बात करती आयी हूँ तो उसी को थोडा आगे लेकर अपनी बात रखना चाहती हूँ। उस फिल्म में प्रसंग ऐसा है कि एक बहन दूसरी बहन का हाथ पकडे चल रही है, पहलेवाली बाथरूम जाने के लिए आगे बढ़ती है और पीछेवाली उसका हाथ छोडती नहीं बल्कि और अधिक ज़ोर से पकडती है, पहलेवाली बार बार उसे हाथ छोडने के लिए कहती है पीछेवाली हर बार उसका हाथ और अधिक मज़बूती से पकडकर अपनी ओर खींचती है और कहती है हाँ हाँ जाओ। तब पहलेवाली रोष में आकर इरिटेड होकर कहती है, ‘ छोडोगी तो मैं जाऊंगी न’ तब पहली वाली बहन उसे कहती है कि, ‘ तुमने ही तो पकड के रखा है। उसे छोड दो… जीने दो उसे… और खुद जीओ… तुम्हारे भीतर की स्वतंत्र स्त्री को बाहर आने दो…. ।’ फिल्म की थीम के अनुसार और भी कुछ था। पर यह प्रसंग बार बार मेरे मन में कौंध रहा था… मैं बहुत कुछ सोचे जा रही थी, लोग मुव ऑन कर जाते हैं… और पीछे वाला ख्वामखाह वहीं खड़ा रहता है… किस इंतजार में…।
सच कहूँ मेरे दिमाग में बहुत कुछ ज्वार भाटे की तरह उमड घुमड रहा है, मेरी स्मृति पटल पर कुछ तस्वीरें जींवत हो रही है, और मैं चुप नहीं बैठ पा रही हूँ, जो कुछ जैसा कुछ मेरे मन में उठ रहा है, लिख रही हूँ, जानती हूँ तुम मुझे कभी जज नहीं करते, हमारी शर्त याद है न… जंजमेंटल नहीं होना है…।
सोच रही हूँ, एक लंबा समय एक साथ बिताने के बाद माना कि एक दूसरे को एक दूसरे की आदत हो जाती है। उनके प्लस माइनस पॉइंट्स के अब कोई मायने नहीं होते हैं, उनकी भी तो आदत हो ही जाती होगी। एक दूसरे की आदत हो जाना अर्थात और दूसरे विकल्प का न होना ही है। मतलब उस रिश्ते को ढोने के लिये मजबूर होना या लब्बोलुआब ये कि अब इसी रिश्ते में जीवन भर बंधे रहना । ये आदत ही तो नहीं होना ही उसका गुलाम हो जाना है और जिस वक्त गुलामी हो गई तो रिश्ता कहाँ बचता है? रिश्ता तो हवा में फैली खुशबू है जितनी अपनी साँस में भर सको भर लो। उस खूशबू को रोकने की कोशिश करने का क्या मतलब… और खशबू भला कभी रोकी जा सकती है? आदत लग जाने से दूसरे पर निर्भरता बढ़ जाती है और यहीं निर्भरता दूसरे का बंधन बन जाती है। जहाँ बंधन बढ़ता है वहीं दरारें पड़नी शुरू होती है और रिश्ता ढहने लगता है। रिश्ता ऐसा हो जो स्वतंत्र तो हो ही साथ ही उसमें केयर भी होनी चाहिए । सम्मान हर रिश्ते की रीढ होती है। जो रिश्ता हमें सम्मान का अनुभव कराता हैं वह हमें आत्मिक संतुष्टि और खुशी प्रदान करता है।
प्यार एक सुंदर अनुभूति है, एक बेहद खूबसूरत रिश्ता है किंतु ये भी सम्मान के बिना मर जाता है। प्रेम शब्द हमारे जीवन का अहम हिस्सा है, पल पल को जीने के लिए यह बहुत जरूरी हो जाता है कि हम हर पल प्रेम की भूमिका को सही पहचान ले, क्योंकि हर रिश्ते में प्रेम का अवदान जरूरी है और बिना रिश्तों के जीवन भी अधूरा होता है। रिश्ते हमारे जीवन की धूरी है, इनका महत्व भी कम नहीं आंका जाना चाहिए। हालांकि आज के हालात, रिश्तों की अनचाही कहानियाँ बयान करते नजर आ रहे हैं। फिर भी, इस दुनिया के सारे कार्य-कलाप प्रेम और रिश्तों की आपसी समझ से ज्यादातर सम्पन्न किये जाते है।
रिश्ता उस नदी की धारा सा होता है जो प्यास बुझाने के साथ साथ अपने कल कल संगीत से हमें तरोताजा करता है, सक्रिय बनाये रखता है। यह रिश्ता विश्वास, समझदारी, सहयोग, और सम्मान के मूल्यों पर आधारित होता है। जब हम इन मूल्यों के साथ रिश्ते बनाते हैं, तो हम आपस में गहराई और प्रेम का अनुभव करते हैं। कहते हैं सच्चा प्रेम कभी बढ़ता भी नहीं और घटता भी नहीं और ना ही सच्चे प्रेम में कोई शर्त या उम्मीद होती है।
लेकिन जिन के बीच दरारें आ गयी हों, एक दूसरे प्रति कोई सम्मान ही नही रहा हो तो उस रिलेशनशिप का क्या? क्या उस रिश्ते को ढोना आवश्यक है? अगर पहले का समय होता तो शायद यही कहा गया होता कि नहीं नहीं इतने साल बीता दिए, अब और कितना समय रहा है, चलो एडजस्ट करके जीवन जी ही लेते हैं। आखिर परिवार की, व्यक्ति की मान मर्याद और प्रतिष्ठा का सवाल है! संबंधों में आयीं दरारों से पीडित व्यक्ति अपना मन मारकर चेहरे पर उधार की मुस्कुराहट सहेजकर जीवन को जीने बाध्य होता है.. किंतु वह अंदर खुश नहीं रह सकता, रिश्ते का बोझ कहीं न कहीं वह ढोता रहता है जिसकी प्रतिक्रिया कई रूपों में होती है, कभी तो वह हद से ज्यादा हँसता है, लाउड बोलता है, अधिक एकस्प्रेसिव होने की कोशिश करता है या फिर निरंतर शॉपिंग, आउटिंग, फैशन आदि में खुद को उलझाकर जीने का एक नया तरीका अपनाता है, शायद यह दिखाने के लिए कि मैं खुश हूँ.. एक बोझ लिए भी खुश हूँ। मनुष्य तो जीने को बाध्य है, और एक सच्चाई है कि आज के समय में ऐसे कितने ही लोग हैं जो ओढी हुई जिंदगी जी रहे हैं। यह दिखावा आज मनुष्य की फितरत में यह सब शामिल हो गया है। एक दुहरी जिन्दगी जीना उसकी किस्मत बन गयी है। कितनी जिंदगियाँ दोहरी जिदंगी जीते हुये तबाह हो गई और कितनी रोज रोज तबाह हो रही हैं.. इस सच से तो सारी दुनिया वाबस्ता है। हमारा सामाजिक ताना बाना ऐसा रहा है कि उसी में सब सिसक रहे हैं। जीवन में प्रेम विवश हो, तब रिश्तों को लोक लिहाज के लिए निभाने की कोशिश करता है, तो विश्वास कीजिये, वो आत्मग्लानि के अलावा कुछ भी नहीं झेल पाता। और हम यही सोचने लगते हैं कि, शहरयार के शब्दों में कहे तो,
सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूँ है।
यह बहुत ही सामान्य बात है कि हम जो नहीं है वह दिखाने की कोशिश निरंतर करते रहते हैं। इसका एक कारण है कि हम अक्सर लोगों द्वारा जज किए जाने का डर पालते रहते हैं। शायद यही वजह भी है कि हम अक्सर लोगों की आँखों में जो जच जाता है उसे ही करते हैं। इन दिनों यह प्रवृत्ति तो कुछ अधिक ही बढ़ रही है।
हम भले ही किसी रिलेशनशिप से बाहर क्यों न आ गए हो पर यह ज़रूर चाहते हैं कि उस व्यक्ति तक मेरे खुश होने की खबर अवश्य पहूँचनी चाहिए, ताकि उसे यह लगे कि उसके बिना मैं बुहुत खुश हूँ… अब तुम्हारी आवश्यकता नहीं है मुझे… जी लेता/लेती हूँ मैं तुम्हारे बिना। और खुश भी रहता/ रहती हूँ। पर क्या वाकई यह ऐसा है?… हम ऐसा क्यों चाहते हैं? …. न जाने कैसा असुरी आनंद है इसमें! क्यों हम उसे भी अपने अहसासों से दूर नहीं रखते.. क्यों आज़ाद नहीं हो पाते या आजाद नहीं करते? रिश्ते में बंधन रिश्तों को सड़ा देते हैं…रिश्तें के दम पर अगर कोई बंधन डाल रहा है तो मान लिजिए कि व्यक्ति की आज़ादी खतम होती जा रही है। पहले पहले ये बंधन अलंकार लगते हैं.. पर एक समय बाद जंजीर…।
मेरे सामने फिर एक शब्द वह सवाल बनकर खड़ा हो गया है.. मोहब्बत! और इस शब्द के साथ मुझे अहमद फराज की दो पंक्तियाँ याद आयीं,
नासेहा तुझ को ख़बर क्या कि मोहब्बत क्या है
रोज़ आ जाता है समझाता है यूँ है यूँ है।
सभी जानते हैं यह एक अहसास जिसमें मात्र समर्पण है, एक ऐसी अनुभूति जो शब्दों से परे होती है.. उम्मीद कुछ भी नहीं..बस चाहत है… कोई प्रतिबद्धता नहीं। इसमें एक दूसरे को स्पेस है… और स्पेस हमारे जीवन में बहुत महत्व रखता है… और हम वही नहीं देते…. और वहीं से शुरु होता है एक दबा दबा सा युद्ध अंदर… फिर कभी वह कई रूपों में आकार लेता है…। पर सच ये भी है कि किसी के न होने का अहसास सबको है पर मौजुदगी की कदर किसी को नहीं।
बोझ बने रिश्तों में जकड़ना वाकई स्वास्थकारक नहीं… छोडना भी ज़रुरी है…. कभी कभी जरूरी है हम अपनी कस्तुरी ढूँढ ले… वह कहीं और है भी नहीं….अपने ही भीतर है….और हम मारे मारे उसे बाहर ढूँढ रहे है… और वही सुगंध ही हमें वाकई में शांति देगी… कारण वही हमारी सही पहचान की चाबी है।
हम आज के जीवन पर गौर करे तो लगता है, सब कुछ होते हुए भी मौजूदा हालात हमें तन्हा कर रहे हैं। हम तन्हाई पसन्द हो रहे हैं। एक जगह पर दुष्यंत कुमार ने कहा है,
जिए तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरे तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
चिंतन की बात यही है कि प्रेम एक सच्चाई है, जो रिश्तों को अपने आयाम तलाशने में मदद करती है। वरन् Joseph F Newton Men के विचार सही ही लगने लगते हैं कि “People are lonely because they build walls instead of bridges।
आज इतना ही…
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© डॉ प्रतिभा मुदलियार
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