श्री महेश कुमार केशरी
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – मुल्क ☆ श्री महेश कुमार केशरी ☆
“मांँ तुम रो क्यों रही हो ? ” -सादिक ने अमीना बीबी के कंँधे पर धीरे से हाथ रखकर पूछा। ” नहीं, मैं रो कहाँ रही हूंँ ? “ ” नहीं, तुम रो नहीं रही हो तो तुम्हारी आंँखों से आंँसू कैसे. निकल रहे हैं ? ” सादिक, वैसे ही बोल रहा था। जैसे वो, अमीना बीबी की बात को ताड़ गया हो। “कुछ नहीं होगा… हमलोग.. कहीं.. नहीं जा रहें हैं। सादिक ने अमीना बीबी को जैसे विश्वास दिलाते हुए कहा।” बहुत मुश्किल से अमीना बीबी का जब्त किया हुआ बांँध जैसे भरभराकर टूट गया, और वो रुआंँसे गले से बोलीं – ” इस तरह से जड़ें… बार-बार नहीं खोदी जातीं l ऐसा ही एक गुलमोहर का पेंड़ हमारे यहांँ भी हुआ करता था। तुम्हारे अब्बा ने उसे लगाया था। इस गुलमोहर के पेंड़ को देखकर तुम्हारे अब्बा की याद आती है। सोचा, इस गुलमोहर के पेंड़ को ही देखकर मैं बाकी की बची-खुची जिंदगी भी जी लूंँगी। मैंने यहांँ बहुत समय निकाल दिया। अब, सोचती हूंँ की बाकी का समय भी इसी जमीन पर इसी गुलमोहर के नीचे काट दूंँ। यहांँ की तरह ही वहांँ भी धूप के कतरे , पानी की प्यास और आदमी को लगने वाली भूख में मैंने कोई अंतर नहीं पाया। बार-बार जड़ें नहीं खोदी जाती ..सादिक मियांँ ! ..ऐसे गुलमोहर एक दिन में नहीं बनते। “और अचानक से अमीना बीबी जोर जोर से रोने लगीं। सादिक ने अमीना बीबी को अपनी बाहों में भर लिया और चुप कराने की कोशिश करने लगा।अमीना बीबी को चुप कराते- कराते सादिक भी पता नहीं कब खुद भी रोने लगा।
© महेश कुमार केशरी
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