सुश्री अनीता श्रीवास्तव
☆ कथा-कहानी ☆ कुंठा ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆
(पर्यावरण – प्रदूषण एवं उसके दूरगामी परिणामों पर आधारित एक विचारोत्तेजक कथा।)
अमर को इस शहर में आए दो माह हो गए थे । ट्रांसफ़र के बाद हुए डिस्टर्बेंस से अब निजात मिलने लगी थी। जीवन धीरे-धीरे व्यवस्थित हो चला था। बच्चों का स्कूल चालू हो गया था। मिनी और पिंटू क्रमशः आठ और ग्यारह साल के दो बच्चे थे आम बच्चों की ही तरह थोड़े नटखट, थोड़े होशियार । राखी उन्हें अपनी पलकों की छाँव में रखती । उनके हर क्रियाकलाप पर नज़र रखती। यूँ तो बाजार से कुछ भी लाना होता तो वह अमर को फोन कर देती थी। अगर वह फोन न भी करे और बच्चों की कोई मांग न भी हो तो भी अमर कभी ऑफिस से खाली हाथ नहीं आता था । एक पिता को शाम को खाली हाथ घर नहीं जाना चाहिए, खास कर जब घर में छोटे बच्चे हों। इस बात का अमर को एहसास था । नन्हीं मिनी तो पापा के चक्कर लगाने लगती थी। शायद पीछे कुछ छुपाया हो। पिंटू भी प्रश्नवाचक निगाहों से उसे देखता। अमर को इस सब की इतनीं आदत हो गई थी कि वह शाम को घर पहुँचता तो एक पॉलिथीन का कैरीबैग हमेशा उसके हाथ में होता जिसमें कभी आइसक्रीम, कभी चिप्स – बिस्किट तो कभी फल या कुछ और होता । आज भी यही होने वाला था, लेकिन घटनाक्रम कुछ बदल गया। पिछले एक साल से वह मंगलवार को व्रत रखने लगा था। लंच ब्रेक में सिर्फ चाय पीता । आज उसने चाय पीते हुए एक पत्रिका हाथ मे ले ली। सभी साथी इधर-उधर निकल चुके थे। उपवास के कारण थोड़ी ऊर्जा कम लग रही थी इसलिए वह बाहर नहीं गया। चाय की चुस्कियाँ लेते हुए उसकी आँखें पृष्ठ पर बाएं से दाएं फिसलने लगीं । ।एक तस्वीर देख कर वे ठहर गईं ..जैसे कि बहती नदी के बीच कोई चट्टान आ जाए। चित्र में समुद्र के बीच एक द्वीप दिख रहा था जो रंग बिरंगा था। जितने टॉफी, बिस्किट, आइसक्रीम और चिप्स आदि के पैकिट उसने अब तक खरीदे थे उन सबके रंगीन आकर्षक लाल, नीले, काले रैपरों और पन्नियों से बना यह द्वीप जहाज़ की तरह पानी की सतह पर बहा जाता था। । इस चित्र में वह इस तरह खो गया कि चित्र, चित्र न रहा चलचित्र हो गया … नीचे लिखी इबारत पढ़ कर उसके कान खड़े हो गए। प्रतिदिन सैकड़ों लोग समुद्र किनारे…बीच पर सैर-सपाटा करने जाते हैं। वहीं खाते-पीते हैं और पॉलिथीन के खाली पैकिट वहीं छोड़ आते हैं। समुद्र में जब ज्वार आता है तो ये सारा कचरा लहरों के साथ समुद्र में चला जाता है। इस तरह की पन्नियों का यह कचरा एक साथ एक जगह पर द्वीप की शक्ल में समंदर की सतह पर तैरते रहता है। रंग बिरंगी पन्नियों से बना द्वीप…..क्या हैरानी की बात है! ये मुंबई वासी भी कितने लापरवाह हैं।अभी पिछली बारिश में बाढ़ की विभीषिका भुगत चुके हैं । जबकि बारिश थोड़ी ही हुई थी लेकिन इतने में ही शहर पानी-पानी हो गया था। महानगर का जल निकासी तंत्र अर्थात ड्रेनेज सिस्टम , जगह-जगह पॉलिथीन फंसी होने से बाधित हो गया था।
अमर ने मेज़ पर मुक्का मरते हुए कहा ये पन्नियाँ हमें बर्बाद कर देंगीं । लेकिन किया भी क्या जाए ? ये इतनीं सुविधाजनक जो हैं। हर जगह उपलब्ध हैं।
उसने आराम करने की गरज से कुर्सी के टिकने वाले हिस्से पर दोनों हाथ रखे फिर उन पर सिर टिका लिया। सहज ही ऊपर दृष्टि ऊपर की ओर चली गई और दीवार पर लगी एक पेंटिंग पर जा कर स्थिर हो गई। पेंटिंग में किसी आदर्श ग्रामीण परिवेश को चित्रित किया गया था । अमर उस सुरम्य ग्राम में मानसिक प्रवेश कर गया । वाह! वे भी क्या दिन थे । सामान लेने के उद्देश्य से घर से निकलो तो थैला हाथ में लो। पुरानी पेंट के बने थैले , जो अम्मां के हाथों के कौशल से मजबूत और डिजाइनदार बन जाते थे। वैसे बाबू जी जूट या सूती कपड़े से बने थैले भी बाजार से लाते ही थे । पहले इत्मिनान से सामान की सूची बनती। अम्मां रसोई का सामान लिखवातीं, फिर हम बच्चे अपनी आवश्यकताएँ गिनाते। अधिक समान होने पर एक से अधिक थैले ले जाने पड़ते। तब एक थैले में बाकी थैलों को तहा कर रख लिया जाता।।तेल – घी के लिये खाली डिब्बा या कैन ले जाना होता। अम्माँ की बाबू जी को, खास हिदायत होती आंखें बंद कर के मत उठा लाना , सब सामान देख-भाल कर लाना । बाबू जी हाथ पर मल कर ,फिर सूंघ कर देखते कि घी नकली है या असली। ।आसपास के गांव से छोटे किसान और पशुपालक अपना घी व्यापारियों को बेच जाते थे। यह घी दुकानों से फिर घरों तक पहुंचता था। अब तो हमें पता ही नही होता हम जो रैपर में सजा हुआ खाद्य पदार्थ घर ले कर जा रहे हैं उसका कच्चा माल किस गाँव से आया होगा। सिर्फ उत्पादक की निर्माता कंपनी या ब्रांड का नाम ही पढ़ने में आता है।
“हा हा हा एक किलो भिंडी होती ही कितनी है शर्मा जी । ख़ाँमख़ाँ भाभी जी को परेशान करते हो , आप ही लेते जाना।” ये मनोहर जी थे जो अमर के सहकर्मी थे और एक दूसरे साथी परेश कुमार शर्मा जी को अपनी बेशकीमती सलाह दे रहे थे।
“लेकिन मैं सब्जी के लिए थैला-वैला कुछ नहीं लाया घर से।“ परेश बाबू ने अपनी मजबूरी बताई। उनके स्कूटर की डिग्गी में एक थैला हमेशा पड़ा रहता था।
“पॉलीथीन के कैरीबैग में लेते जाइये। शर्मा जी ! ज़माना कहीं का कहीं पहुँच गया और आप अभी तक थैले-थैलियों में ही अटके हैं।” मनोहर जी , शर्मा जी का मज़ाक उड़ा रहे थे।
बातचीत के इस शोर ने अमर को वास्तविकता के धरातल पर लाने का काम किया। तस्वीर से उतर कर उसकी दृष्टि पुनः पत्रिका के चित्र पर ठहर गई जो कि अब पहले से भी ज्यादा भयानक लग रहा था। शाम को जब अमर घर पहुंच तो उसके हाथ मे थोड़े से फल थे बच्चे फल खाने में उतनी रुचि नहीं दिख रहे थे जितनी चिप्स खाने में दिखाते हैं। इसीलिए बेमन से मिनी रसोई में जा कर माँ के पास खड़ी हो गई। मञ लौकी छिल रही थीं । छिलके और कुछ बचा हुआ भोजन माँ ने एक पॉलीथिन में डाला और बोलीं, “मिनी ज़रा इसे डस्टबिन में डाल आओ।”
मिनी ठुनक कर बोली, “मुझ से कचरा फिंकवाती हो?”
माँ ने बड़े प्यार से कहा,” नहीं मेरी प्यारी गुड़िया, इसमें कचरा नहीं है।ये तो छिलके हैं और थोड़ा तुम्हारे टिफिन का बचा हुआ खाना है।”
मिनी ने देखा डस्टबिन के चारों ओर कचरा फैला हुआ था।लोग दूर से ही कचरा फैंका करते जो थोड़ा बहुत बाहर भी गिर जाता था।मिनी को भी पास जाने में घिन आ रही थी ।उसने भी दूर से ही पन्नी फेंकी । मगर वह डस्टबिन में न जा कर बाहर ही गिर गई।अमर बालकनी में खड़ा ये दृश्य देख रहा था। वह तुरन्त राखी पर चिल्लाया, “ बच्ची को कचरा फैंकने मत भेजा करो।”
राखी ने फिर उसी तरह सफाई दी, “कचरा नहीं है, छिलके और कुछ बचा हुआ खाना है ।बस।”
अमर के मन में आज एक नई चेतना उमंग रही थी । उसने और तेज़ हो कर कहा, “ये तुमने क्या किया? खाने – पीने की चीज़ तो पन्नी में डाल कर नहीं फिकवाना थी।”
“तुमको लगता है गाय पन्नी सहित खाना निगल जाएगी?”
“तो क्या गांठ खोल कर खाना निकालेगी फिर खाएगी?”
“ऐसा कुछ नहीं होगा।मैंने पन्नी में सिर्फ एक अंटा लगाया है जो फेंकते ही खुल गया होगा। वैसे भी यहां गाय कम ही आती है।” राखी ने अमर को आश्वस्त करने की कोशिश की।
अमर ने पुनः गर्दन घुमाई तो देखा मिनी नाक दबा कर वहाँ से भागी आ रही है। अगले दिन रविवार था।हफ्ते भर की थकान मिटा कर सोमवार को जब अमर ऑफिस के लिए तैयार हुआ तो एकदम तरोताज़ा था। दोनों बच्चे स्कूल जा चुके थे। राखी ने चम्मच प्लेट की खटपट के बीच मेज़ पर नष्ट लगाया और दोनों खाने बैठ गए।
अमर, “मैंने एक प्रण किया है, यानी रिसोल्यूशन.””
राखी, “ कैसा रिसोल्यूशन?”
अमर, “ यही की आज से हम लोग बाजार से पॉलिथीन के बने कैरीबैग में कुछ भी नहीं लाएँगे।”
राखी की हंसी निकल गई। मुख से निवाला गिरते- गिराए बचा। बोली, “ तो कैसे लाएँगे।”
“ घर से थैला ले कर निकलेंगे।
“ और अगर अचानक याद आए कि कुछ लेना है तो?”
“ उसका भी तोड़ है । मैं हमेशा गाड़ी की डिग्गी में एक थैला रखूँगा । तुम ऐसा करने में मेरी मदद करोगी।”
राखी को अमर की आंखों में भावुकता नज़र आई । उसका लहज़ा ऐसा था कि हाँ कहना पड़ा । इन्हीं बातों के साथ अमर ने नष्ट खत्म किया और ऑफिस के निकल पड़ा। अभी कुछ ही दूर निकला था कि लोगों का झुंड दिखाई दिया। अमर गाड़ी छोड़, वहां पहुंच गया। उसने देखा एक गाय मरी पड़ी थी । उसका पेट फूला हुआ था । मुंह से झाग निकल रहा था। गर्दन और शरीर अकड़ा हुआ था मानो असहनीय पीड़ा भोग कर मरी हो । लोग सवाल-जवाब में उलझे थे ।
“ ये यहाँ आई कैसे?”
“मौत ले आई !”
“ठीक कहते हो भाई । यहीं कचरे के आस;पास डोलते देखा था मैंने इसे।”
“ भूखी होगी।”
“ ऐसे निर्दयी लोग हैं । मवेशियों के खाना-खुराक का ध्यान नहीं रखते बस दुहना जानते हैं ।”
“ हो न हो जूठन- छिलका आदि के साथ-साथ गाय पन्नी भी खा गई। पन्नी इसकी आँतों में फंस कर रह गई होगी । पेट दर्द से तड़पी होगी। देखो…. इसकी देह पर कितनी धूल- मिट्टी चिपकी है ।”
“नगरनिगम वालों को फोन करो।”
“ हाँ हाँ फोन करो, आ कर उठा ले जाएं ।”
अमर अब घर की ओर लौट रहा था। लुटा हुआ सा।उदास….आत्मग्लानि से भरा हुआ … जैसे गाय को उसीने मार डाला हो। जाने क्यों उसे लग रहा था गाय ने वही पॉलिथीन खाई होगी जो उस दिन मिनी ने लौकी के छिलके और टिफिन का बचा हुआ खाना रख कर फेंकी थी….और जिसमें राखी ने सिर्फ एक अंटा लगाया …. और जो फेंकते ही खुल जानी थी मगर मिनी ने बजाय फैंकने के उसे सड़क पर ही छोड़ दिया। हाँ…. शायद… नहीं- नहीं पक्का….ये वही पॉलीथिन है।
तो क्या उसे गऊ-हत्या का पाप लगेगा? उनको नहीं लगेगा जो पन्नी में समान बेचते हैं? इनको भी नहीं जो पॉलीथिन बनाते हैं? विचारों की यह श्रृंखला जन्म ही न लेती अगर वह आज फिर पन्नी में फल न लाया होता। वह स्वयं को एक हत्यारा मानने लगा …इतना बड़ा पातक! बचना कितना आसान। पॉलिथीन का बहिष्कार।
© सुश्री अनीता श्रीवास्तव
मऊचुंगी, टीकमगढ़ म प्र
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈