सुश्री सुनीता गद्रे
☆ कथा कहानी ☆ उसका घना साया… भाग-२ – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆
(बारात घर जाने के बजाय मुंबई हॉस्पिटल में…. नई नवेली दुल्हन… मैं… इमरजेंसी वार्ड के बाहर… दवाइयॉं, खून, इंजेक्शन, एक्सरे, स्कैन, शब्द मैं सुन रही थी… सुन्न मन और दिमाग से। बीच में पता नहीं कब किसी के साथ जाकर कपड़े बदल आई थी। ) ….अब आगे
सुहागरात…कितने सुनहरे ख्वाब देखे थे मैंने! एक सह- जीवन की प्यार भरी शुरुआत! वैसे भी जयंत बहुत कोमल मन का… सुमधुर वाणी का धनी… प्यारी बातों से परायों को भी अपना करने वाला! मेरे मन पर तो उसके शब्द मोहिनी का जादू आरुढ था। पहले भी ‘हमारे’नए फ्लैट को घर बनाने के लिए, सजाने-धजाने के लिए वहाॅं मैं कई बार गई थी। वहॉं कभी मुझे अकेली को काम करती छोड़कर वह अपने काम पर चला जाता था। कभी-कभी वह वहाॅं मौजूद रहता था, मदद करने के बहाने। सच बताऊॅं तो उस वक्त थोड़ासा शक, थोड़ा सा डर मन में रहता ही था। अगर वह बहुत पास आ जाय तो? शादी को अभी महीना ही बचा है। उसके रॅशनल थिंकिंग, धार्मिक कर्मकांडों का विरोध वगैरह बातों की मैं आदी हो चुकी थी। पर मेरी मध्यमवर्गीय मानसिकता के संस्कार मुझे डराते रहते थे। अगर उसने शादी के पहले ही मुझसे फिजिकल कांटेक्ट की बात की तो? …. लेकिन वह डर बेकार था। वह बहुत ही सज्जन लड़का था। एक बार मजाक में उसने मुझे बांहों में लेकर इतना जरूर कहा था। “देखो यह बेड़ भी इंतजार कर रहा है, बिल्कुल मेरी तरह… सात जून का …अपनी सुहागरात का !
सात जून की रात को तो हमें एक दूसरे के बाहूपाश में होना चाहिए था। इतने सारे दिनों का इंतजार खत्म होने वाला था। पर दुर्भाग्य से आज सात जून को जयंत आईसीयू में, और मैं अभागन हॉस्पिटल के किसी कोने में एक कुर्सी पर बेबस!
वह बेचारा अंदर तड़प रहा होगा, बर्दाश्त कर रहा होगा। मैं भगवान को हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही थी। उसके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना कर रही थी।
आठ दस दिन ऐसे ही निकल गए। सिर्फ एक अच्छी बात यह हो गई, उसको आईसीयू से स्पेशल रूम में लाया गया। वह खतरे से बाहर निकला था। लेकिन हम सब डरे हुए ही थे। ऐसे में ही एक दिन मम्मी हॉस्पिटल में ही फटाक से बोल पड़ीं “शुरू से ही इसमें कोई खोट होगी, जभी तो दहेज नहीं लिया। “
जयंत ने यह सुना तो नहीं? मैं बहुत टेंशन में थी।
पर लोगों के मन में इस तरह का ख्याल भी आ सकता है, यह बात उसके मन में भी आई होगी।
एक दिन पापा से बोला, “आप विश्वास रखिए…. सच में मुझे कोई भी बीमारी नहीं थी। शायद आप लोगों को लग सकता है कि मैंने आपको धोखा दिया। ” “जयंत जी, कृपया इस तरह सोच कर दुखी मत होइए। आपके बारे में हम ऐसा सोच भी नहीं सकते। मन शांत रखिए। डॉक्टर इतनी कोशिश कर रहे हैं। आप जल्दी स्वस्थ, निरोगी हो जाओगे। “पापा ने उसे समझाया।
जयंत की जिद की वजह से शादी के पहले हमारी जन्मकुंडली भी नहीं मिलाई थी। दस लोग, दस बातें ! शायद लड़की मांगलिक होगी उसकी भाभी उनके किसी परिचित को कह रही थी। मंगल के प्रभाव से यह हो रहा होगा। मुझे लग रहा था कि मैं चिल्ला चिल्ला के सबको बता दूं कि मैं मांगलिक नहीं हूॅं।
शादी के बाद हमारा दस दिन के लिए ऊटी जाने का प्रोग्राम था। खूबसूरत ऊटी में घूमना फिरना, एक दूजे के लिए जीना, एक दूसरे के अधिक समीप आना यह तो हमारा सपना था। जिंदगी की शुरुआत हम एक अलग ही खुशी और आनंद से करने वाले थे। पर वे दस दिन तोअस्पताल में डॉक्टरों के गंभीर चेहरे… दवाइयों की बदबू… जिंदगी को मौत की छांव में देखकर आये हुए मानसिक तनाव… इसीमें बिताने पड़े। लग रहा था एक बार हॉस्पिटल से छुट्टी हो जाए तो फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा। मैं जयंत को संभालूॅंगी, उसके हेज-परहेज का ख्याल रखूंगी। सेवा करूंगी। जिंदगी इतनी बड़ी होती है। अभी तो शुरुआत है, आगे जाकर इन दस दिनों की याद भी नहीं आएगी। पर तब यह कहाॅं मालूम था कि यह यादों की छाॅंव मेरा पूरा जीवन व्याप्त करेगी।
जयंत एक निडर पत्रकार था। एक प्रसिद्ध अखबार का अब सहायक संपादक बन गया था। लेकिन दफ्तर में बैठकर काम करना उसको मंजूर नहीं था। किसी भी महत्वपूर्ण घटना को वह वहाॅं जाकर ही कवर करता था। राजनीतिक उठापटक, सामाजिक आंदोलन, शिक्षा, अर्थकारण ऐसे विषयों पर उसकी अभी व्यंगात्मक शैली में लिखी गई ‘प्रकाश किरण’ इस शीर्षक के तहत प्रकाशित होने वाली लेखमाला बहुत ही लोकप्रिय हो गई थी। शादी के पहले मैं भी उसकी पाठक थी। मुझे वह लेखमाला बहुत पसंद थी। बल्कि मुझे उससे प्यार हो गया था। उसका प्रसिद्ध लेखक मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार कर रहा है, यह मुझे एक सपने के समान लगता था।
जयंत की बीमारी के चलते वह लेखमाला बंद हो गई क्योंकि उसको बेडरेस्ट की बहुत जरूरत थी। लेकिन जैसे ही वह घर आया, धीरे-धीरे उसके फ्रेंड सर्कल का घर आना… उनकी गपशप… चर्चायें…बहस बाजी….और चाय नाश्ता खाना-पीना फिर से शुरू हो गया। वह खुश रहने लगा। उसके स्वास्थ्य में सुधार हो रहा था। लेकिन डॉक्टर ने दी हुई बेड- रेस्ट की हिदायत को वह अनसुना करने लगा। मेरा कर्तव्य मैं अच्छी तरह से निभा रही थी। इसलिए मैं चिंतित हो गई, डर गयी। मैं उसे बाहर जाने से, ऑफिस के चक्कर लगाने से, रोकने का प्रयास करती थी। पर प्यार से “बेबी, सोना, गुड्डोरानी कहकर अपनी मीठी मीठी बातों में वह मुझे इस तरह उलझाता कि उसके लिए चिंता जताना मेरी कितनी बेवकूफी है यह बात वह हंसते-हंसते सिद्ध कर देता। इसी दौरान संघटित मजदूर संघ के नेताओं ने राष्ट्रीय हड़ताल घोषित कर दी। जगह-जगह पर सभा, रैलियां, धरना प्रदर्शन का दौर शुरू हुआ। उल्टी-सीधी बयानबाजी शुरू हो गई। मालिक, मजदूर नेतागण, विरोधी पक्ष नेता, मजदूर- सब की आपबीती, राज्य सरकार का बीच-बचाव, इतना सब घटित होता देख आराम करते रहना या सिर्फ ऑफिस में बैठे रहना जयंत के लिए असंभव था। उसके अखबार के संपादक जी ने भी उसको सिर्फ थोड़ा बहुत ऑफिस वर्क करने की सलाह दी थी। उन्होंने बताया था फिल्ड वर्क करने के लिए जर्नलिज्म किए हुए नवोदित संवाददाताओं की भर्ती की हुई है। वे लोग ही सभा, सम्मेलन, रैलियां कवर करेंगे, और जयंत का काम रिपोर्ट, महत्वपूर्ण व्यक्तियों के साक्षात्कार को अच्छी तरह से संपादित करना, यही रहेगा। लेकिन जयंतनेअपनी बीमारी को बहुत हल्के में लिया। बेड रेस्ट तो वह करना ही नहीं चाहता था। संपादक जी का कहना भी उसने नहीं माना, भैयाजी जी की बातों को सुना अनसुना कर दिया। और बेवजह अपने शरीर पर अत्याचार करता रहा। हड़तालऔर प्रदर्शन हिंसक हो रहा था। जिससे मेरी चिंता, फिकर बढ़ती जा रही थी। “तुम इतना परिश्रम मत करो” मैं रोते-रोते उससे विनती करने लगी थी। लेकिन उसने मेरी एक न मानी। उसके अंदर के पत्रकारिता का जुनून उसे आराम करने नहीं दे रहा था। उसका चिड़चिड़ापन भी बढ़ता जा रहा था ‘ मेरे काम में तुम टांग मत अड़ाओ’ मुझे वह गुस्से से कहने लगा था। मैं अच्छा खासा हूॅं, कुछ नहीं होगा मुझे। ‘ यह उसका जवाब होता था। जब भी देखो श्रमिकों की खस्ता हालत और श्रमिक नेताओं द्वारा किया जाने वाला उनका शोषण… इस तरह के विषय पर उसकी बातें होती रहती थीं। सभा सम्मेलन, चर्चाएं , मोर्चा, इसमें वह रात- दिन की, गर्मी की, भूख- प्यास की परवाह न करते हुए जाता रहा।
क्रमशः…
मूल मराठी कथा (त्याची गडद सावली) –लेखिका: सौ. उज्ज्वला केळकर
हिन्दी भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे
माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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