श्री अनिल विठ्ठल मकर
☆ कथा कहानी ☆
मराठी कहानी – सँदेसा… लेखक – श्री सचिन वसंत पाटील ☆ भावानुवाद – श्री अनिल विठ्ठल मकर–
दिन ढलने लगा। पश्चिम का आकाश ललछौंह हो गया। सखू बूढ़िया ने अपना गोड़ाई का काम रोका और दिनभर के काम पर आखरी नजर दौड़ाई। गोड़ाई किया खेत हिस्सा उसे हरी गुदड़ी को काला टुकड़ा लगाए जैसा लग रहा था। गोड़ाई से निकले हुए घास की उसने छोटीसी गठरी बनाई और उसी में ही खुरपी ठूँस दी। उसने एक झटके में ही वो गठरी सिर पर ली। शाम के घरकामों की चिंता उसके चेहरे पर स्पष्ट रूप में झलकने लगी। पहले ही समय ब्याही भैंस को दुहने की चिंता से उसने घर का रास्ता पकड़ लिया। टेड़ा-मेड़ा रास्ता काटते हुए वह तेज गति से चलने लगी।
“अरी ओ बूढ़ियाऽ…कहाँ जा रही हों इतनी तेजी से? रूको ना, मैं भी आनेवाली हूँ…”
पीछे से किसी को तो आवाज आ गई। इसलिए वह पीछे मुड़ गई। पीछे मूड़ते समय गर्दन टेड़ी करते समय गठरी न गिरे इसलिए उसने उसे एक हाथ लगाया। शाम के वक्त इतनी देरी से आवाज देनेवाला कौन होगा? इस विचार से उसने पीछे मुड़ कर देखा तो वह चौंक ही गई। गन्ना कटाई के लिए गई येसाबाई सिजन खत्म होने से पहले ही आयी थी। वह ऐसे-कैसे आ गई, उसे देख बूढ़िया को अचरज ही हुआ।
“अरीऽ…येसाबाई, तू है क्या? कब आ गई?” ठोड़ी को हाथ लगाते हुए सखू बूढ़िया ने ताज्जुब से पूछा।
“यही तो, अभी आ गई, कुर्डूवाडी का मेरा छोटा भाई मर गया। इसलिए तो आयी थी तीसरे के लिए!” येसाबाई ने बताया।
येसाबाई के छोटे भाई के मौत की खबर सुनकर बूढ़िया को बहुत बूरा लगा। उसका संवेदनशील मन मौत की खबर सुनते ही बेचैन हो गया। पति की मौत के बाद उसे ऐसा ही होता। किसी के भी मौत की खबर सुनते ही उसकी आँखें भर आती। अपनी भावनाओं पर काबु करते हुए उसने दुखी मन से ही पूछा,
“कैसे मर गया अचानक?”
“कहते है कि उधर शहरों में कोई तो बीमारी आ गई है। जिसकी वजह से लोग छुहारे की तरह दुबले-पतले होकर मर जाते हैं।”
श्री सचिन वसंत पाटील
सखू बूढ़िया को यह थोड़ा आश्चर्यजनक ही लगा। ठोड़ी पर हाथ रखते हुए वह विचारचक्र में डूब गई। चिंता की रेखाएँ उसके चेहरे पर स्पष्ट रूप में झलकने लगी। शहर में गन्ना कटाई के लिए गए अपने नौजवान बेटे की चिंता उसे सताने लगी…। कैसी होगी यह बीमारी? अगर वह मेरे बेटे को हो गई तो सोने जैसा बेटा हाथ से गँवाना पड़ेगा। ‘ऐसी कैसी मौत होगी यह!’ वह खुद से ही बुदबुदाई। जैसे छठी की देवी (सटवी) को उसे यह सवाल पूछना था। उसे लगने लगा कि सोने जैसे बेटे को बिना वजह से परदेस भेज दिया। उसका मन भर आया। आँखों आँसू तैरने लगा। सिसकियाँ को रोकते हुए उसने आँखें पोंछ ली। मन थोड़ा कठोर कर कुछ पूछने के इरादे से उसने येसाबाई की ओर देखा। तब तक येसाबाई ही बोली,
“तेरे बेटे की जरा-भी फिक्र मत कर। वह बिल्कुल ठीक है।”
खबर सुनते ही सखूबाई खुश हो गई। पूछने के पहले ही उसे अपने सवाल का जवाब मिल गया था। उसकी निस्तेज आँखें चमक उठी। झुर्रियोंवाले चेहरे पर हास्यरेखाएँ छा गई। वह जी-जान एक कर अपने प्यारे बेटे की खुशहाली सुनने लगी। सुनते-सुनते उसके चेहरे पर चाँद खुल गया और अनायास ही पूछ बैठी,
“क्या सँदेसा भेजा है मेरे बेटे ने।”
अब वो दोनों भी साथ-साथ चलने लगी। दिनभर तपी बंजरभूमि काटती हुई दोनों आगे बढ़ने लगी। अब पैर के रफ्तार के साथ येसाबाई के मुँह की भी रफ्तार शुरू हो गई।
“आते समय मैं खुद उसे मिलकर आयी हूँ। मुझे पता ही था कि गाँव आने के बाद तू पूछेगी ही। इसलिए तो तेरे बेटे को आते समय ही पूछा था ‘तेरा कुछ सँदेसा है क्या माँ के लिए? और इसके बाद ही आयी। लेकिन यह भी सच है कि घर से आदमी दूर होने पर चिंता तो सताती ही रहती है। लेकिन तू उसकी फिक्र मत कर। तेरा बेटा बिल्कुल ठीक है। उसने तुझे अपनी तबियत का खयाल रखने के लिए कहा है। तेरी भी चिंता है ना उसे। उसका सबकुछ ठीक है। रहने के लिए जगह भी अच्छी मिल गई है। मुकादम भी अच्छा है। एक बार जोरदार बेमौसम बारिश होने दो, सीजन खत्म होगा और आएगा बेटा तुझे मिलने….”
येसाबाई बोल रही थी और सखू बूढ़िया ध्यान से सुन रही थी। बेटे की खुशहाली सुनकर उसे थोड़ा सुकून महसूस हुआ। उसके जान में जान आ गई। उसे लगने लगा कि मैं बिना वजह से चिंता कर रही थी। बूढ़िया के मन में उमड़े चिंता के बादल शांत हो गए। धीरे-धीरे अंधेरा घना होने लगा। येसाबाई ने समझाने के बावजूद बेटे की चिंता सखूबाई का पीछा नहीं छोड़ रही थी।
“दो जून की रोटी के लिए बेटे का काफी मशक्कत तो नहीं करनी पड़ती होगी?” बूढ़िया के मातृहृदय ने अपने मन की चिंता व्यक्त की।
“उसकी जरा भी फिक्र मत कर। हमारी टोली में सभी मिल-जुलकर रहते हैं। वह किसी के पास भी खाना खाता है।”
“ठीक है, लेकिन समय पर खाने को मिला तो ठीक। नही ंतो…” सखू बूढ़िया का दिल तिल-तिल टूटने लगा। उसे गन्ना कटाई के बेटे को बाहर भेजने का पछतावा होने लगा। उसे लगने लगा कि इतने लाड़-प्यार से बेटे किए बेटे को मैने बिना वजह से टोली में भेज दिया। जिसके लिए पूरी जिंदगी दाँव पर लगाई, जी तोड़ मेहनत की, वही बेटा आज ऐसे रोटियाँ माँग कर खा रहा है। दिन भर खाली पेट जी तोड़ मेहनत करता है। बेटे के शरीर की हालत पूरी खस्ता हो जाएगी। खाने-पीने की उसकी यह उमर। मैंने बिना वजह से उसे टोली में भेज दिया…। बाहर घने होते अँधेरे के साथ बूढ़िया के मन का अँधेरा भी घना होता गया।
“बाहर जाने के बाद सभी गाँव वाले मिल-जुलकर रहते हैं। सभी एक जगह पर रहते हैं, खाते हैं, पीते हैं।” येसाबाई ने ऊपर-ऊपर से औरचारिक रूप में बूढ़िया को समझाने का प्रयास किया।
“पीते है याने शरीब पीते हैं क्या?”
सखू बूढ़िया को मानो झटका-सा लग गया। कुछ दिन पहले शराब पी-पीकर पति भगवान का प्यारा हो गया। अब बेटा भी उसी राह पर चलने लगा है क्या? उसका मन बेचैन हो गया। पूछे गए सवाल का जवाब सुनने के लिए चकित होकर येसाबाई की ओर मुड़ गई।
“वैसा कुछ नहीं, लेकिन…. दिनभर काम कर थकान आने पर लेते हैं बीच-बीच में…।” येसाबाई ने शराबियों की वकालत की।
“वैसा नहीं येसाबाय, शराब की लत याने बहुत बूरी। किसी ने एक बार लेना शुरू किया तो उसकी पूरी जिंदगी लील लेती है।”
“देख बूढ़िया, शराब कोई जान-बूझकर पीता है क्या? दिन भर काम कर थकान आने पर ही… थोड़ी-सी शाम को लेते है दवा की तरह!”
येसाबाई ने फिर एक बार शराबियों का पक्ष लिया। काम कर-कर थक जाने पर टोली के सभी लोग थोड़ी-बहुत लेते हैं; यह सुन सखूबाई का दम घुटने लगा। बिना वजह से उसे अपने और बेटे के बीच अंतर दूर-दूर लगने लगा। शराब पी-पीकर पीले पड़े पति को उसे अपनी खुद की आँखों से देखा था। बेटे की भी वैसे ही हालत न हो, ऐसा उसे लगने लगा। पति की बीमारी के दौरान और उसके मृत्यु के बाद क्रियाकर्म के लिए कई लोगों से लिए पैसे और कर्ज के भुगतान के लिए उसने बेटे को गन्ना कटाई की टोली में भेज दिया था। नहीं तो वह अपने लाड़ले बेटे को ऐसा दूर नहीं भेजती। गाँव के गणपाभाई का शिवा, चमार का मारुती, लंबू किसना सभी ने उसके खयाल के बारे में आश्वस्त करने के कारण ही उसने बेटे को गन्ना कटाई मजदूरों की टोली में भेज दिया था।
रह-रहकर सखू बूढ़िया को बेटे की चिंता सताने लगी। ‘कैसा होगा मेरा बेटा क्या पता…?’ उसने मन-ही-मन किसी को तो सवाल किया। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कुछ देर बाद उसने थोड़ा अपने मन को सँवारते हुए येसाबाई से पूछा,
“मेरा बेटा पीता तो नहीं है ना…?”
येसाबाई ने अपने दाएँ हाथ की थैली बाएँ हाथ में ली और दाएँ हाथ को नागफनी की तरह हिलाते हुए बोली,
“नहीं…नहीं… तेरा बेटा बहुत देवता के गुणों का है। उसे सुपारी के टुकड़े का भी लत नहीं। क्या अच्छा और क्या बुरा वह अच्छी तरह जानता है। कुछ भी हो थोड़ा बहुत क्यों न हो चार किताबें पढ़ा है। वह ऐसे नहीं बिगड़ेगा।”
येसाबाई ने दिखाए विश्वास से बूढ़िया का आत्मविश्वास बढ़ गया। उसकी चाल में भी दम आ गया। उसे लगा कि है ही मेरा बेटा अच्छा। न किसी का लेना-न-देना, न किसी के बीच। वह चाहे शराबियों में ही क्यों न रहे लेकिन विवेक से रहे। सिर्फ शराब नहीं पीनी चाहिए। ऐसा रहे तो कोई चिंता नहीं…।
बूढ़िया ने विचारों की कालिख को झटक दिया और सीधा अपने रास्ते से बिनधास्त रूप में चलने लगी। वैसे तो वह अपने ही रोब में चलते हुए थोड़ी ज्यादा ही दूर गई। येसाबाई पीछे ही रह गई। इसलिए येसा ने फिर से आवाज दी,
“अरी ओ बूढ़ियाऽ…तुझे कुछ मालूम है क्या?”
सखू बूढ़िया पीछे देखे बगैर ही रूक गई। पीछे से येसा आने की राह देखते हुए वह खड़ी हो गई।
“क्या हुआ येसाबाई?”
“वो ऊपर की गली में रहने वाला गणपाभाई का शिवा है ना, उसे परसो पुलिस पकड़ ले गई थी। कारखाने पर किसी की तो हत्या हो गई है और कुछ लोग कहते हैं कि वह इसने ही की है! क्या सच और क्या झूठ? भगवान ही जाने। कहते है कि वह बिना वजह से वह चाकू कमर को लगाकर घूमता है। ज्यादा आवारा ही लगता है। कहाँ वो गणपाभाई और कहाँ उनका बेटा। कैसा निकला है देख।”
बूढ़िया को यह सब आश्चर्यजनक ही लगा। कहाँ देवता के गुणों के गणपाभाई और उनके वंश में ऐसी विचित्र औलाद का जन्म। बूढ़िया को अपने बेटे की चिंता सताने लगी। क्या सही में हमारा बेटा गुंडागर्दी से दूर होगा?…नहीं तो वह भी ऐसे ही किसी के तो बुरी संगत में लगा होगा।…पुलिस उसके पीछे लगी होगी। नहीं तो चोर, गुंडे शिवा जैसे लोग चाकू लेकर उसके पीछे लगे होंगे। और मैं यहाँ आराम से बैठी हूँ। बूढ़िया को चिंता सताने लगी। उसे लगने लगा कि बिना वजह से बेटे को गन्ना कटाई की टोली में भेज दिया। कर्ज का भुगतान तो क्या आज न कल हो जाता धीरे-धीरे। पैसा ही नहीं होगा तो क्या साहुकार चमड़ी निकाल के ले जाएगा? जैसे-जैसे आता पैसा वैसे दे देती, नहीं तो थोड़ा-सा जमीन का टुकड़ा बेच देती! उधर कसाई की चंगुल फँसा मेरा बेटा जानवरों की तरह चिल्लाता होगा। और मैं यहाँ बैठी हूँ…परमेश्वरा, विठ्ठला, पांडुरंगा सँभालो रेऽऽ मेरे बच्चे को….। कहते हुए।
बूढ़िया फिर से चिंता में डूब गई। खुद ही आरोपी के पिंजड़े में खड़ी होकर खुद को ही दोषी साबित करने लगी। उसने चिंतामग्न चेहरे से येसाबाई की ओर देखा। लेकिन येसा की बकबक जारी बंद होने का नाम नहीं ले रही थी। वह आगे बोली,
“यह तो कुछ भी नहीं। वो चमार का मारुती है ना पिछले चार सालों से टोली में है। टोली में उसने काफी पैसा कमाया। नया घर बनाया, गिरवी जमीन छुड़वाई, बहन की शादी भी की। हमें लगा की लड़के ने अच्छा नाम कमाया! अरी लेकिन क्या बताऊँ, कहते हैं कि उसने वहाँ एक स्त्री (रखैल) रखी है। वह हमेशा उसके पीछे-पीछे दुम हिलाते घूमता रहता है।”
यह सुन सखू बूढ़िया के शरीर की रही-सही ताकद भी गायब हो गई। अब उसके सिर पर होने वाली गठरी उसे और भारी लगने लगी। इस बात पर उसका विश्वास ही नहीं बैठ रहा था। उसने येसाबाई से मारुती के संदर्भ में पूछ-पूछ कर उसके संदर्भ में सबकुछ जान लिया। तो पता चला कि सही में उसने एक रखैल रखी है। बूढ़िया को मारुती का गुस्सा आ गया। खुद खाई में गया तो गया लेकिन मेरे बेटे को भी लेकर गया। बेटे को बिना वजह से मारुती के साथ भेज दिया, ऐसा उसे बार-बार लगने लगा।
मारुती इतना सीधा-सरल आदमी ऐसे कैसे बिगड़ गया। क्या पता नाटक, सिनेमा देख बिगड़ गया होगा? घर से आदमी दूर रहेगा तो ऐसा ही होगा न…, न किसी का डर, न किसी का बंधन। बिना रस्सी के जानवर की तरह।…जहाँ चाहे उधर दौड़े…!
बेटे की चिंता से बूढ़िया का दिल तिलतिल टूटने लगा। उसके शरीर पर रोंगटे खड़े हो गए। रह-रहकर उसे उसे लगने लगा कि, जवानी के जोश में मेरा बछड़ा किसी सटवी (स्त्री) के चंगुल में फँस गया तो… फिर बैठो तालियाँ पीटते! ऐसी तैयार हुई फसल मैं बर्बाद नहीं होने दूँगी। (अब कुछ करने लायक बने मेरे बेटे को मैं बर्बाद नहीं होने दूँगी) इससे उसे बचाना होगा। उसके बगैर कौन है हमारा? बूढ़ापे की लाठी है वह हमारा, उसका खयाल रखना ही होगा। अब ये सिजन खत्म होते ही उसकी शादी ही कर होगी। असली सिक्का है वो मेरा। कभी भी बाजार में उतरो, हमखास पूरा का पूरा दाम मिलेगा। कतार लगेगी लड़कियों की कतार…। लड़कियों कतार लगेगी, वो तो ठीक है लेकिन लड़का ठीक से वापस आया तो न…। खुद का ही खुद पर भरोसा नहीं रहा तो बेटे का क्या देगी?
ऐसा ही विचारचक्र में डूबी बूढ़िया बंजरभूमि को पार कर गाँव तक पहुँच गई। उसकी आँखों के सामने वो येसाबाई का छोटा भाई तैरने लगा। जो असाध्य बीमारी से दुबला-पतला होकर मरा था। वो कौन-सी बीमारी है, क्या पता?
मेरे बेटा भी इसकी चपेट में आ गया तो एड़ियाँ घिस-घिस के मर जाएगा। मुझसे यह नहीं देखा जाएगा। और वो रहता भी है शराबियों में। अगर पीता होगा तो हो गया मामला तमाम…। शराब पी-पीकर छिपकली की तरह बना उसका पति उसे याद आ गया। पति के चेहरे की जगह उसे अपने बेटे का चेहरा दिखने लगा। वैसे उसके मन की बेचैनी और ही बढ़ गई। वह घबरा गई। हवा का एक झोंके से वह ऊपर से नीचे तक हिल गई। मानो उसके शरीर में कुछ ताकद ही नहीं बची हो।
उसके मन का संतुलन ढल गया। मानो ढहनेवाले बुर्ज की तरह बूढ़िया ढह गई। उसने अपने सिर की गठरी नीचे फेंक दी और झटके में नीचे बैठ गई। छोटे बच्चे की तरह वह घुटनों में सिर डालकर रोने लगी।
अब तक चूप येसा को यह सब देख विचित्र ही लग गया। चकित होकर वह बूढ़िया के पास जा बैठी और पूछने लगी,
“अरी क्या हुआ बूढ़िया? ऐसे रोने क्यों लगी!”
बूढ़िया ने सिर्फ गर्दन हिलाई और फिर से जोर-जोर से रोने लगी। तब येसाबाई समझाने के स्वर में बोली,
“तेरा बेटा ठीक है, कोई फिकर मत कर। कुछ सँदेसा हो तो बोल, कल जाकर बताऊँगी तुरंत।”
इसे सुनते ही बूढ़िया ने किसी तो निश्चय से गर्दन ऊपर उठाई और मन से बोली,
“तेरे पैर पकड़ती हूँऽ…येसाबाय। तुझे अगर मेरी सही में मेरी चिंता हो तो सिर्फ यही सँदेसा बता दो मेरे बेटे को…बोल उसे, ‘जैसा हो वैसा अब की अब तुरंत वापस निकाल आ…!’ सिर्फ यही सँदेसा है उसे बोलो… सिर्फ यही सँदेसा हैऽऽऽ…”
इतना ही बोलकर बूढ़िया झट से खड़ी हो गई। देखते ही देखते उसे गठरी सिर ली और चलने लगी। आखिर चारों ओर फैले घने अँधेरे में वह समा गई। लेकिन येसाबाई बूढ़िया गई दिशा की ओर ही अँधेरे में आँखे फाड़-फाड़ कर देखती रही।
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(लेखक श्री सचिन वसंत पाटील लिखित मराठी कहानी ‘सांगावा’ का श्री अनिल विठ्ठल मकर द्वारा ‘सँदेसा’ नाम से हिंदी भावानुवाद)
मूळ मराठी कथा – ‘सांगावा’ – कथाकार – श्री सचिन वसंत पाटील – (मो.नं. : 8275377049)
अनुवाद – श्री अनिल विठ्ठल मकर
शोध-छात्र, हिंदी विभाग, शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर (महाराष्ट्र) मोबा.: 9673417920 ई-मेल : [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈