श्री घनश्याम अग्रवाल
(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा – “एक- दूजे के लिए”)
☆ लघुकथा ☆ वैलेंटाइन डे विशेष “एक- दूजे के लिए” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆
🌹 मुहब्बत ताजमहल की मोहताज नहीं होती 🌹
जब भी, जिसे भी, जैसा भी प्यार करो, आपके लिए वही “वैलेंटाइन डे” है। भरोसा नहीं हो तो पढ़िए, ये लघुकथा…
भूख, गरीबी, बेकारी और झोंपडपट्टी के बीच घिरी होने पर भी निसार और शब्बो की मुहब्बत बड़ी अमीर थी। अनपढ़ निसार रोज काम की तलाश में भटकता रहता। मिला तो कुछ खा-पीकर मुहब्बत की बातें करते और सो जाते, नहीं मिला तो सिर्फ बातें करते और भूखे ही सो जाते।
आज शब्बों की सालगिरह है, कुछ मिल जाए तो वह शब्बो के लिए मिठाई ले जाएगा। निसार यही सोचता भटकता रहा। उसे काम तो नहीं, पर रमदू मिल गया। पूछने पर रमदू ने बताया कि -” जब उसे काम नहीं मिलता और पैसे की जरूरत होती है तो वह अपना एक शीशी खून बेच देता है। अरे, कुएँ में जिस तरह पानी आता रहता है न, डाॅक्टर बोलते हैं कि आदमी के जिस्म में खून भी वैसे ही बनता रहता है। “
रमदू के साथ जब वह डिस्पेंसरी से निकला तो उसकी जेब में तीन सौ रूपये थे। उसने पचास रुपयों की मिठाई खरीदी, खून देने की कमजोरी शब्बों की सालगिरह के उत्सव में दब गई। मिठाई का टुकड़ा शब्बो की ओर बढ़ाते हुए बोला-” सालगिरह मुबारक हो।” दूसरे ही पल शब्बो उसकी बाँहों में थी।
“आज का दिन कितना मुबारक है, देखो मुझे कितना काम मिल गया।”
निसार की बातें सुन शब्बो महसूस करने लगी कि इस सालगिरह पर वह एक साल छोटी हो गई। निसार की बाँहों का कसाव बढ़ने लगा। और साँसों की गर्माहट भी।
अब जब भी जरूरत होती, निसार अपना खून बेचकर पैसे ले आता। धीरे-धीरे शब्बो महसूस करने लगी कि निसार की बाँहों में अब न पहले जैसा कसाव है और न ही साँसों में गर्माहट। इस बार तो उसे निसार की बाँहें काफी बेजान-सी लगीं । एक लम्हे के लिए वह डर ही गई। इसके पहले कि वह सँभलती, निसार वही चक्कर खाकर गिर गया। वह जोर से चीख पड़ी। आसपास के दो- चार लोग जमा हो गए। बेहोश निसार को पास के अस्पताल ले गए। डाॅक्टर ने एक नजर निसार के पीले चेहरे पर डाल गुस्से से कहा “खून बेचते हो न ?”
निसार को अब तक कुछ होश आ चुका था। उसने स्वीकृति में अपनी गर्दन हिलाई। ” जानते हो खून कितना कीमती होता है। खून देने के भी अपने कुछ नियम होते हैं। इस तरह खून बेचते रहोगे तो…एक दिन…”
” नहीं-नहीं- डाक्टर साब, इन्हें बचा लीजिए, ” करीब-करीब उसके पैरों पर झुकते हुए , रूआँसी आवाज में शब्बो बोली।
” घबराओ मत, एक महीने तक इलाज कराते रहे तो ये बिलकुल ठीक हो जाएँगे। ” नरम स्वर में डाॅक्टर ने कहा।
शब्बो के साथ घर लौटकर निसार फटी-फटी आँखों से देखता रहा, फिर बोला-” मुझे खैराती अस्पताल ले जाती। एक महीने के इलाज के लिए कहाँ से आएगा पैसा ? और ये बता, अभी ये दवा और फीस के पैसे कहाँ से लाई ? “
” मुझे काम मिल गया था। “
” काम, कैसा काम ? “
” देखो, वो अपना ठेले वाले सिन्धी था न, जब वह नहीं रहा तो उसकी बीबी ठेले पर वही सामान बेचने लगी। और वो चौथी झोंपड़ी के रहीम पर जब फालिज पड़ा तो अब उसकी बीबी उसकी जगह कारखाने जाती है। अब, जब तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं, तो क्या मैं नही जा सकती रमदू के साथ ? “
” तो तुम खून बेचकर पैसा लाई हो ? नहीं-नहीं, तुमने सुना नहीं डाॅक्टर क्या कह रहा था ? खून बड़ी कीमती चीज है, उसे यूँ नहीं बेचना चाहिए। मैं मरता हूँ तो मरने दे। ” निसार कुछ तेज स्वर में बोला।
” मगर उसने ये भी तो कहा कि एक महीने में तुम बिलकुल ठीक हो जाओगे । “
” हाँ, मैं एक महीने में अच्छा हो जाऊँगा, मगर तब तक तुम्हारा क्या होगा ? एक महीने बाद तुम्हारी क्या हालत हो जायेगी ? तब…? “
” तब तुम मुझे बचा लेना । अगले महीने मैं तुम्हें बचा लूँगी। “
” फिर तुम मुझे, फिर मैं तुम्हें ….”
” फिर तुम, फिर मैं….”
” फिर …” निसार और शब्बो की आँखें भीग गई। वहीं किसी झोंपड़ी में गीत बज रहा था, ‘ हम बने, तुम बने एक-दूजे के लिए ….’
और शब्बो अपनी भीगी आँखों से फक् से हँसती हुई निसार की बाँहों में समा गई। शब्बो महसूस करने लगी कि निसार की बाँहों का कसाव बढ़ता जा रहा है। साँसों की गर्माहट भी।
© श्री घनश्याम अग्रवाल
(हास्य-व्यंग्य कवि)
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈