सुश्री सुनीता गद्रे
☆ कथा कहानी ☆ महाकवि गुणाढ्य और उसकी बड्डकहा(बृहत्कथा) – भाग २ ☆ सुश्री सुनीता गद्रे ☆
(व्याकरण सहित संस्कृत पढ़ाने के बारे में शर्ववर्मा और गुणाढ्य में शर्तें तो लग गई,) अब आगे…
अब यह शर्त जितना बड़े प्रतिष्ठा का विषय बन गया। शर्ववर्मा ने कुमार स्वामी जी से ‘कातंत्र व्याकरण’ सीखा था।यह वही दैनंदिन कामकाज में सहाय करने वाला व्यावहारिक व्याकरण था। उसकी मदद से शर्ववर्मा ने सचमुच ही राजा को छह महीने में इस तरह से संस्कृत और व्याकरण सिखाया की संस्कृत बोलते वक्त राजा को किसी के सामने शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं थी।
राजा बहुत खुश हुआ। बहुत धन दौलत देकर उसने शर्ववर्मा की पूजा की। उसे नर्मदा तट पर स्थित भृगु- कच्छ (भडोच) देश का राजा घोषित किया।
केवल वह जल क्रीडा की घटना और उसकी अगली कड़ी– शर्त हारने की घटना, दोनों ने गुणाढ्य के उर्वरित जीवन को उलट पलट कर रख दिया। उसके जिंदगी की दशा और दिशा ही बदल गई। वहाॅंसे उसके जीवन का बुरा दौर शुरू हो गया।
शर्त के अनुसार उसने संस्कृत, पाली, प्राकृत भाषा त्याग दी।मौन धारण कर कर वह विंध्य पर्वत पर जाकर विंध्यवासिनी की पूजा अर्चना में मग्न हो गया। कुछ समय पश्चात वहाॅं के वनवासियों से उसने ‘पैशाची’भाषा सीख ली। यह पैशाची भाषा प्राकृत का ही उपभेद थी।
गुणाढ्य ने वहाॅं बृहत्कथा की रचना की ।सात साल के अथक प्रयासों से सात लाख छंदों में उसने वह लिखी ।…..वह भी पैशाची भाषा में!….. इसलिए उसका नाम बड्डकहा!
विंध्याचल के घने जंगल में स्याही या भूजपत्र उपलब्ध नहीं थे।परिणाम स्वरुप मनस्वी गुणाढ्य ने मृत प्राणियों के चमड़े पर खुद के खून की स्याही से यह विशाल कथा लिख डाली। लिखते लिखते वह छंदों का उच्चारण भी करता रहता था।उसे सुनने के लिए वहां सिद्ध विद्याधरों की भीड़ इकट्ठी होने लगी। उसमें से गुणदेव और नंदी देव उसके शिष्य बन गए ।
सात साल बाद जब बड्डकहा पूरी हो गई तब उसका प्रसार प्रचार किस तरह से किया जाए ,यह सवाल गुणाढ्य के सामने उपस्थित हो गया। उसके शिष्यों के मत के अनुसार सिर्फ सातवाहन नरेश जैसा व्यक्ति ही यह काम कर सकता था। गुणाढ्य को भी यह सलाह अच्छी लगी। फिर उसके दोनों शिष्य राजधानी में
सातवाहन के दरबार में पहुॅंच गए ।उन्होंने गुणाढ्य के कालजई कृति पर राजा को विस्तार से जानकारी दी।….
…लेकिन सात लाख छंदों(श्लोकों) की इतनी बड़ी पोथी?…. नहीं,बडा पोथा… वह भी जानवरों की खाल पर….. पैशाची जैसे नीरस भाषा में….. और तो और, ….इंसान की लहू से लिखा गया हुआ…. पूरे दरबार में जिसकी बदबू फैल गई थी!….. ऐसे कृति की ओर देखना भी राजा ने मुनासिब नहीं समझा। शिष्यों के साथ बुरा व्यवहार करकर उनको अपमानित करकर राजा ने उनको वापस भेज दिया ।
राजा के इस व्यवहार से कवि गुणाढ्य बहुत दुखी हो गया। राजधानी के पास की एक पहाड़ी पर उसने अग्नि कुंड बनाया। ऊॅंची उठती आगकी लपटों में उसने अपने महान कलाकृति का एक के बाद एक पन्ना गाकर फिर उसमें अर्पण करना शुरू कर दिया। उन श्लोकों के गायन में इतनी मधुरता थी, कि पासपडोस के जंगल में रहने वाले पशु पक्षी उसके पास इकट्ठे हो गए ।एक-एक करके पन्ना अग्निकुंड में जलकर भस्म हो रहा था। यह दृश्य देखने वाले शिष्यों के ऑंखों में पानी था… और पशु पक्षी खाना पीना भूल कर ऑंसू भरी ऑंखों से स्तब्ध होकर बड्डकहा का श्रवण कर रहे थे।
इधर सातवाहन के राजमहल में सामिष भोजन के लिए अच्छा मांस उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। क्योंकि सारे पशु पक्षियों की निराहार रहने की वजह से हड्डियां निकल आई थी। शरीर का सारा मांस नष्ट होने लगा था। प्रयास करने पर इसका कारण ज्ञात हुआ और उसके साथ ही गुणाढ्य के काव्य- कथा हवन की बात भी सामने आ गई।सारी बीती बातें राजा को याद आ गई ।उसको बहुत पछतावा हुआ। अपनी गलती सुधारने के लिए वह तुरंत उस पहाड़ी पर गया। कितनी भी कोशिश करने पड़े, गुणाढ्य को और उसकी बड्डकहा को बचाने का राजा ने प्रण ही किया था। राजा ने साष्टांग प्रमाण कर कर गुणाढ्य से क्षमा याचना की। बहुत मिन्नतें की। वहीं बैठकर आमरण अन्न जल त्याग कर मरने का अपना निश्चय बताया। आखिर में गुणाढ्य ने अपने रचनाओं को अग्नि मेंअर्पित करना बंद किया। …लेकिन तब तक कथा का सातवाॅं हिस्सा, सिर्फ एक लाख श्लोक ही बच पाए थे। राजा ने उसके प्रचार प्रसार का वचन दे दिया और गुणाढ्य को उसके अमूल्य साहित्य के साथ सम्मान सहित अपने राजधानी वापस ले आया।
क्रमशः…
© सुश्री सुनीता गद्रे
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈