सुश्री रजनी सेन
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री रजनी सेन जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। आज प्रस्तुत है आपकी बाल कथा – “बिट्टी का जूता”)
☆ बाल कथा – बिट्टी का जूता ☆ सुश्री रजनी सेन ☆
बिट्टी जिस दिन से आई है कहीं नहीं गई, फिर उसका जूता कैसे खो सकता है। यह सवाल 6 साल के जादू के दिमाग में ततैये की तरह भिन-भिन कर रहा था। बिट्टी जिस दिन से घर में आई थी, लकड़ी के छोटे से सिंगारदान पर बैठे-बैठे पूरे घर को निहारती रहती थी। बिट्टी को देख जादू सोचता कि इस गुड़िया में मम्मी को ऐसा क्या नज़र आया जो इसे इतना प्यार करती हैं। किसी को उसे हाथ तक नहीं लगाने देतीं और आते-जाते उसे ऐसे निरख कर जाती हैं जैसे जादू फ्रिज में छिपाई हुई चॉकलेट को चुपके -चुपके देखता है। बिट्टी कपड़े की एक गुड़िया थी जिसके बाल जादू को किसी झाड़ू की तरह लगते, आंखें बटन की तरह और सबसे गजब बात थी कि उस बिट्टी की भी तीन गुड़ियां थीं जिन्हें उसने अपनी जेब में रखा था। मम्मी सबको बड़े इतराकर बतातीं –यह है बिट्टी और यह तीनों हैं बिट्टी की गुड़िया सिट्टी, पिट्टी और गुम। सुनने वाले खूब हसंते और जादू कुढ़ कर रह जाता। सच तो यह था कि बिट्टी के आने से उसकी घर में पूछ-परख कुछ नहीं तो पाव भर तो कम हो ही गई थी क्यूंकि सबकी नज़र आते ही बिट्टी पर पड़ती और सब उसी के बारे में पूछने लग जाते। मम्मी को भी समझ तो आने लगा था कि बिट्टी से जादू की बनती नहीं है सो बिट्टी का जूता खोने का पहला शक जादू पर ही जाता था। मम्मी ने पूछा –‘ जादू सच सच बताओ कहां छिपाया है बिट्टी का जूता’ तो जादू ने मासूमियत से कहा
..मैंने नहीं छिपाया, आपकी बिट्टी ही रात को सिंड्रैला की तरह पार्टी में गई होगी और अपना जूता छोड़ आई होगी।
– जादू ने मम्मी से सिंड्रैला की कहानी सुन रखी थी। लेकिन मम्मी को संतोष न हुआ। सर्दियां ज़ोर की पड़ने लगी थीं और बिट्टी का एक जूता खो जाने का दुख उन्हें सोने नहीं देता..जब भी मोज़ा पहनतीं दुखियाने लगतीं….पता नहीं कहां गया मेरी बिट्टी का जूता। दरअसल मम्मी को एक दुख और भी था। म्मी बिट्टी के लिए ऊनी मौज़े बुनना चाहती थीं पर उन्हं बुनना आता ही नहीं था। दुख से कहतीं- काश पढ़ाई –लिखाई के साथ थोड़ा सिलाई-बुनाई भी सीख लिया होता उस पर से बड़े भाई आदू ने आग में घी डालते हुए कहा
मम्मी इसी जादू ने छिपाया है बिट्टी का जूता, इसे पसंद नहीं है न बिट्टी
जादू ने तपाक से कहा- पसंद तो तू भी नहीं है पर तेरा जूता छिपाया क्या ?
बात में दम था …..आदू -जादू राम लखन नहीं थे ….दोनों में ज़रा नहीं बनती थी लेकिन फिर भी एक दूसरे का जूता कभी नहीं छिपाया। अजीब गुत्थी थी। पूरे घर में ढूंढ़ लिया गया। सोफा खिसका कर, अलमारी सरकाकर, पलंग के नीचे, दीवान के पीछे ….जूता आखिर गया कहां। दो दिन बाद पापा टूर से वापस आए तो उनसे भी पूछा गया उन्होंने झल्लाकर कहा
तुम्हारी बिट्टी का जूता मेरे पैर में तो आने से रहा और जादू क्यूं छिपाएगा, उसे क्या दुश्मनी बिट्टी से। यहीं कहीं खोया होगा ध्यान से देखो। आधी से ज़्यादा चीज़ें तो तुम्हें देख कर भी नहीं दिखतीं। याद है, उस दिन हाथ में ही मोबाइल लेकर, मोबाइल ढूढ़ रही थीं। चित्त लगाकर ढूढ़ों।
समझाइश देकर पापा फुटबॉल देखने लगे। अल क्लासिको मैच था …जादू और आदू की मुंडी भी टी.वी .में गड़ी थी दोनों फुटबॉल के बहुत बड़े दीवाने थे और मैच जब रोनाल्डो और मेसी के बीच हो तो दोनों पगला जाते थे। टी.वी के ठीक नीचे बुक शेल्फ पर बिट्टी बैठी थी एक जूता पहने और जादू को लग रहा था कि जैसे वो उससे कह रही हो कि, मेरा जूता ढूंढ़ दो वर्ना मैं रोने लगूंगी। जादू सोचने लगा कि जूते कितनी ज़रूरी चीज़ हैं अगर मैच से ठीक पहले रोनाल्डो का एक जूता खो जाए तो वो क्या करेगा। एक जूता तो किसी काम का नहीं। उसका दिल भर आया और उसने फैसला ले लिया कि वो बिट्टी का जूता ढूंढ़ कर रहेगा। दो दिन बाद क्रिसमस था। सामने ऑलिव आंटी के घर में क्रिसमस की तैयारियां चल रही थीं। अचानक जादू के मन में विचार कौंधा
मम्मा अगर हम सैंटा से कहें तो वो बिट्टी के लिए जूता ला देंगे न। मम्मी काम छोड़कर जादू को देखने लगीं। क्या सचमुच ऐसा हो सकता है, मम्मी भी सोच में पड़ गईं लेकिन तभी उन्हें याद आया कि वो मम्मी हैं जादू नहीं और सेंटा सच में नहीं होता जैसे ही उन्हें अपने बड़े ने का ख़याल आया वो चुपचाप अपने काम में लग गईं। उधर जादू का पूरा ध्यान बिट्टी के जूते पर था। उसने पेंसिल और काग़ज़ लिया और सोचने लगा कि घर में कौन-कौन आया था और किस-किस ने बिट्टी को उठाया था फिर उसने यह भी लिखा कि घर में कौन-कौन सी जगह हैं जहां बिट्टी जा सकती है। उसे पूरा विश्वास था कि बिट्टी रात में कहां न कहीं तो जाती है। उसने रसोई से शुरू किया …बिस्कुट के डब्बे में देखा फिर पूजा घर में कान्हा जी के झूले में, आदू के बस्ते में, मम्मी के गहनों के डब्बे में, पापा के दाढ़ी के डब्बे में। जूता कहीं नहीं मिला। जादू दो दिन तक ढूंढ़ता रहा। तीसरे दिन था क्रिसमस। जिंगल बेल, केक और दोस्तों के साथ मौज के शोर में जादू जूते की बात भूल गया। उसने मम्मी से कहा -मम्मी मेरे सारे दोस्तों ने सैंटा वाली टोपी लगाई है मुझे भी दे दो। मम्मी काम में व्यस्त थीं बोली पापा की अलमारी में नीचे वाली दराज़ में रखी होगी देख लो।
जादू ठुमकते- ठुमकते गया और जैसे ही उसने दराज़ खोली उसकी आंखें हैरानी से बड़ी होती गईं। उस दराज़ में थे मटर के छिल्के, गोभी के डंठल, अखबार की कुतरन, जादू की ड्राइंग कॉपी के टुकड़े, पेंसिल की छीलन, मम्मी की टूटी लिपस्टिक और बिट्टी का जूता
जादू ज़ोर से उछला –मम्मी, पापा, आदू मिल गया, बिट्टी का जूता मिल गया। …..मम्मी ने आकर देखा तो हैरान रह गईं चूहे महाराज ने हफ्तों की तपस्या से अपनी गृहस्थी बसा ली थी उस छोटी सी दराज़ में। ज़रूरत का हर सामान। खाने के लिए सब्ज़ियां, मेकअप के लिए लिपिस्टिक, बोर हो जाओ तो पेंसिल और चित्रकला की किताब और घूमना हो तो बिट्टी का जूता। लेकिन इन साज़ो-सामान के बीच बिट्टी का जूता वहां कैसे पहुंचा इस सवाल को जवाब दो ही लोग दे सकते थे या तो ख़ुद चूहा महाराज या ख़ुद बिट्टी और दोनों ही बोलना नहीं जानते थे। लेकिन जादू बहुत खुश था क्यूंकि उसने मम्मी की प्यारी बिट्टी का जूता खोज लिया था। उसने बड़े प्यार से बिट्टी को उसका जूता पहनाया और बोला- अब मत खोना बिट्टी, बड़ी कठिनाई से ढूंढ़ा है। तभी जादू को ऐसा लगा जैसे बिट्टी कह रही हो- मैरी क्रिसमस जादू, तुम्हारा शुक्रिया। उस दिन से बिट्टी और जादू दोस्त बन गए और मम्मी का भरोसा नहीं टूटा कि सैंटा सच में होता है। पड़ोस में ऑलिव भाभी के घर में बज रहा था जिंगल बेल, जिंगल बेल ..जिंगल ऑल द वे
© सुश्री रजनी सेन
नई दिल्ली
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈