श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’
☆ मराठी कथा – निर्णय… – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆
वह छज्जे पर खड़ी है। बेचैन-सी। सड़क पर आंख लगाए।उसकी बाट जोहते। पंदरह -बीस मिनट पहले वह छत पर आयी थी तब दिन ढलने लगा था। पर साफ नजर आ रहा था। अब सब ओर से अंधियारा छाने लगा है। पश्चिमी आकाश का नारंगी टुकड़ा गहरा सुर्ख होता हुआ काला पड़ता जा रहा है।… अब तक तो आ जाना चाहिए था,उसने !… वैसे कोई जल्दी नहीं है। जितनी देर से आए, उतना अच्छा! …आज पहली बार घर में अकेले होंगे, वे दोनों! कल राहुल को पाचगणी पहुंचाकर दोनों आज सुबह ही घर लौटे हैं। राहुल नौ- साल का, गोलमटोल।सच कहें तो ‘बड़बड़ करनेवाला, थोड़ा शरारती है’, ऐसा कहा था उसने। पर उसे नहीं लगा वैसा शरारती! उसके साथ कोई विशेष बात भी नहीं की। औरों से कैसे खुलकर बातें करता रहता था! … समीप आनेपर कुछ सिंकुड़ -सा जाता है, ऐसा महसूस किया उसने। एक विचित्र दूरी का अहसास होता रहता। मेरे मन में ममता, आत्मीयता उमड़ी ही नहीं। ‘संग रहने से आज लगनेवाली दूरी कम होगी । अपनापन लगेगा।’ उसने कहा था। कौन कहें? पंदरह दिन लगा जैसे जबरन बिठा दिया गया है। मुझे भी घर में विचरण करते कैसा असहज, असामान्य-सा महसूस होता रहा! कभी लगता, राहुल मेरी ओर ऐसे देखता है जैसे उसके हक़ की कोई चीज मैं छीनकर बैठी हूं। कभी लगता, वैसा कुछ नहीं होगा, ये सब मेरे मन का भ्रम है…! अपराध-बोध मेरे ही मन में घर कर बैठा है, शायद! कभी लगता, उसकी आंखों में क्रोध, आक्रोश है! कभी सोचती, वह विलक्षण, स्वाभाविक प्रेम क्या कभी उसके नैनों में, उसके मन में उपजेगा? …ये विचार मन में आने भर- से कितनी बेचैनी लग रही है!
सौ. उज्ज्वला केळकर
आज राहुल नहीं है। उसकी मुंहबोली चाची भी आज सुबह ही अपने घर लौट गयी। रमेश सुबह आठ बजे घर से बाहर गया और वह एकदम सहज हो गयी। सहज और निश्चिंत।
आज पूरा दिन उसने घर संवारने में लगा दिया। बैठक के फर्निचर की रूपरेखा बदल दी। दरवाजे-खिड़कियों में चमकीले, नारंगी रंग के बड़ी मॉडर्न आर्ट-प्रिंट के परदे थे। उन्हें हटाकर नायलॉन पर बारीक नीले फूलों की डिजाइन वाले हलके नीले रंग के बड़ी-बड़ी झालरवाले परदे लगाए। शेखर को नीला रंग खूब भाता था। घर को नाम भी उसने ‘नीलश्री’ दिया था। भीतर-बाहर सब ओर नीलाभ छटा। परदे, बेडशीट्स, कुशन-कवर्स…सब कुछ गहरे, हलके नीले रंग से सजा हुआ। आज उसने घर का विन्यास बदला और जाने-अनजाने में उसे नागपुर के घर का स्वरूप प्राप्त हो गया। बैठक के कॉर्नर के चौकोनी टी-पॉय पर एक फोटो-फ्रेम थी। बायीं ओर रमेश का पूर्णाकृति फोटो। दायीं ओर राहुल की मम्मी का। उसने राहुल की मम्मी का फोटो हटाया और उसके स्थान पर अपना फोटो रख दिया।
शेखर को बहुत पसंद था वह फोटो। विवाह की सालगिरह पर शेखर ने गहरे नीले रंग की प्रिंटेड जार्जेट लायी थी, उसके लिए। उसी दिन शाम को वह साड़ी पहनकर लंबी, काली चोटी पर मोगरे के फूलों का मोटा-सा गजरा सजाकर, घूमने गयी थी वह। शेख्रर बोला था,
“क्या क्यूट दिख रही हो आज तुम! चलो , फोटो निकालते हैं।”
बगीचे में ही जूही की बेला के नीचे उसने फोटो निकाला।
सोचने लगी, फिजूल लगाया मैंने यह फोटो! कोई दूसरा निकालकर लगाना चाहिए था।
देखते-देखते उसे फ्रेम में रमेश के चेहरे के स्थान पर शेखर का चेहरा दिखायी देने लगा। हँसमुख, तेजस्वी आंखों का शेखर। था तो काला-सांवला ही। पर तीखे नाक-नक्श। इतना बड़ा हो गया फिर भी चेहरे पर बाल-सुलभ भोलापन कायम! हँसता तो शुभ्र-धवल दंत-पंक्ति चमक उठती।
शाम को जलपान के लिए कुछ बनाया जाए कि भोजन ही जल्द तैयार करें? रमेश की क्या पसंद है, जान लेना चाहिए था। विगत आठ -दस दिनों से सब साथ-साथ ही रह रहे थे। पर रमेश की पसंद-नापसंद कुछ ध्यान में न आयीं मेरे। कहने को यहां सब के साथ थी मैं पर अपनी अलग दुनिया में रहे समान ही थी । अपनेआप में मगन! आज वास्तव में अकेली हूं । आज घर व्यवस्थित करते-करते बुरीतरह थक गयी हूं। चाय पीने से शायद ठीक लगे! पर उठकर उतना भी करने को मन नहीं हो रहा है।- तब भी वह उठी। रमेश थका-मांदा आएगा। खाने के लिए कुछ बनाया जाए!
स्कूटर पार्क करके रमेश ने कॉल-बेल दबायी। ‘टिंग…टिंग’ की आवाज घर की सीमा लांघकर छत पर पहुंच गयी। तब कहीं उसे वस्तुस्थिति पता चली। कोई घंटे भर से वह छत पर खड़ी थी। अपनेआप में उलझी हुई-सी। कॉलबेल की आवाज सुनकर वह नीचे आयी। उसने दरवाजा खोला। रमेश ने घर में प्रवेश किया। वहां का हाल देखकर वह कुछ हकबका गया।। अपना ही घर उसे बेगाना लगने लगा।हां, बैठक कुछ प्रशस्त लग रही थी। किनारे का दीवान, अपने स्थान पर न था। लंबाई में रखी हुई गोदरेज अलमारी और प्रशस्त ड्रेसिंग-टेबिल भीतरी दीवार के समीप शिफ्ट किये गये थे। विशेष बात यह थी कि दरवाजे-खिड़कियों के नीले रंग के परदों के कारण एक उदास गंभीरता घर में चक्कर काट रही है, ऐसा उसे लगा। उस पर स्टीरियो से उठते उदास गंभीर सुर उस पर बरस रहे हैं, ऐसा लगा उसे। ऋता थी तब यह कमरा तेज गति की चंचल, चैतन्यमयी स्वरलहरी से सराबोर होता। उसका स्वागत करने का तरीका भी कितना अद्भुत…! आते बराबर गले में बांहें डालकर चुंबन की वर्षा। जब देखो, इर्दगिर्द बतियाती, चहकती रहती। हंसना, रूठना, गुस्सा होना, झुंझलाना,प्यार करना, -सबकुछ बेपनाह।वह तो घर छॊड़कर चली गयी। पर उसकी पसंददीदा तमाम चीजें उसने सहेजकर रखी हुई थीं। आज वे कहीं नजर नहीं आ रही थीं।उस कारण वह कुछ असहज -सा हो गया।
टी-पॉय पर चाय और हलवे की प्लेट रखकर वह भोजन की व्यवस्था के लिए भीतर मुड़ी।
‘अब खाना मत पकाओ। हम लोग बाहर ही चलते हैं भोजन के लिए ।वहां से किसी पिक्चर के लिए चलेंगे। शाहरुख खान-माधुरी की नयी पिक्चर लगी है।’
पिक्चर ऋता का वीक -पाइंट। हिंदी -अंगरेजी, कोई पिक्चर छोड़ती न थी वह! घर लौटने पर फिल्म की अभिनेत्रियां उस पर सवार होतीं और रातभर रंगरेलियां मनातीं।
‘मुझे हिंदी फिल्में बिल्कुल अच्छी नहीं लगतीं। उछलकूद,फूहड़,वही घिसा-पिटा कथानक। नृत्य ऐसे जैसे कवायद की जा रही हो! वही भाग-दौड़, मारपीट, असंभव घटनाओं की खिचड़ी। उसकी बजाए, सरस्वती हॉल में किशोरी अमोणकर का गायन है। वहां चले तो?’
‘पर मुझे क्लासिकल पसंद नहीं है। समझ में नहीं आता। तुम्हारी इच्छा हो तो आऊंगा पर केवल तुम्हें कंपनी देने की खातिर…।’
‘छोड़ो, जाने दो…।’ उसे सवाई गंधर्व की पुण्यतिथि के अवसरपर शेखर के साथ बितायीं रातें याद आ गयीं।
वह रसोई में चली गयी। रमेश ने फ्रीज में से बर्फ निकाली। गिलास में विस्की उंडेली और धीरे-धीरे महफिल में रंग चढ़ने लगा। …उसने देखी। अनजाने में ही क्यों न हो, नापसंदगी, तिरस्कार की एक तीव्र लहर सरसरा उठी। खाना वैसे ठीक ही था। पर उसे उसमें कुछ मजा नहीं आया। ऋता को नॉन -वेज पसंद था। उसका सबकुछ कैसे चटकदार, स्पाइसी हुआ करता था।
‘कल से सब्जी, आमटी जरा चटकदार बनाओ’, उसने कहा।
‘हंऽ…’ बह बुदबुदायी। शेखर मिष्टान्न-प्रेमी था। उसे अधिक मिर्च भाती न थी। मिर्च , मसाले कमतर डालने की आदत पड़ गयी थी उसके हाथों को। अब यह आदत बदलनी पड़ेगी! इसके साथ और भी पता नहीं कौन-कौन सी आदतें बदलनी पड़ेगी…!
भोजन करके वह बैठक में आ गयी। प्लेअर पर भीमसेन की पुरिया की एल. पी. लगा दी और सामनेवाले बरामदे में जाकर खड़ी हो गयी। बगिया की रातरानी की गंध उसके रोम-रोम में पुलक जगा रही थी। वह बैठक में आ गया।क्लासिकल की टेप सुनकर उसके माथे पर अनायास बल पड़ गए। उसे बरामदे में खड़ी देखकर वह बेडरूम की ओर मुड़ गया। बेड़-रूम की व्यवस्था भी बदल गयी थी। बेड-कवर्स भी उदास नीले रंग पर फूलों की बारीक प्रिंट वाले…कोने के टी-पॉय पर रखी न्यूड उठाकर वहां एक फ्लॉवर-पॉट रख दिया गया था। उसमें बगीचे में के इस्टर के फूल और बीचोबीच रातरानी की 2-3 ऊंची डंडियां। बैठक में बज रहे पुरिया के स्वर यहां भी दस्तक दे रहे थे।ये उदास स्वर धक्के-से दे रहे हैं, उसे लगा! कहीं की गरुड कथा लेकर वह अराम कुर्सी पर बैठ गया। उसकी बाट जोहते। …ऋता कभी ऐसी देर न करती!
‘भीतर जाना चाहिए, रमेश राह देख रहा होगा!’ उसने सोचा। पर वह घड़ी जितनी टलती जाए उतना बेहतर, दूसरी तरफ उसे लग रहा था। यह रातरानी की गंध जैसे चिमटती है वैसे ही चिमटता था शेखर। सूरज की कोमल किरणों से जैसे एकेक पंखुड़ी खिलती जाती है उसी प्रकार खिलता जाता, रोम-रोम…!
कैसे भला होगा रमेश का करीब आना…?
रमेश तलाकशुदा था तो शैला विधवा। एक शाम को घटित मोटर-सायकिल दुर्घटना में शैला का जीवन ध्वस्त हो गया। उसे भी अब चार साल हो चुके हैं। बहुत से जख्म भर चुके हैं। अकेलेपन की भी आदत पड़ चुकी। पुन: सिरे- से प्रारंभ नहीं। उसने तय कर लिया। …एक ही कमी थी जो भीतर कभी सालती रहती थी। बच्चा चाहिए था जिसे देखकर अगला जीवन जीया जा सकेगा। जीने का कोई अर्थ रहेगा। उमंग रहेगी। बेटा…बेटी कुछ भी …पर शेखर उसे अकेला छोड़ गया! …‘विवाह के बाद पांच साल प्लानिंग करेंगे। मौज-मस्ती करना। जीवन का आनंद लेना। फिर बच्चा। एक बार बच्चा हुआ कि पूरा ध्यान उसकी देखभाल पर देते आना चाहिए। दो तरफ ध्यान नहीं बंटना चाहिए’, वह कहता। वह भी सहमत थी। वह शेखर को मानती थी। पर जो नहीं होना चाहिए था, वह हो गया। अब लगता है, उस समय शेखर की बात का विरोध करना चाहिये था!
शैला सर्विस करती थी। इस लिहाज से, वह किसी पर बोझ न थी। तब भी रिश्तेदारों को चिंता लगी ही रहती थी। और जिम्मेवारी भी। सारा जीवन पड़ा था…युवा-वस्था…।
आरम्भ में उसका तीव्र विरोध था। पर अनुभव से समझ में आने लगा, जरा मुश्किल ही है। रिश्तेदारों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। बिल्कुल सगा भाई भी हो तो क्या…? उसकी अपनी गृहस्थी, अपनी अड़चनें हैं ही।
नैसर्गिक आवेग भी कभी-कभी बेचैन कर डालता। …उसी दौरान भाई के किसी मित्र ने रमेश के बारेमें बतलाया। जहां भी हो, कुछ-न-कुछ समझौता तो करना ही होगा! वह चुप्पी साधे रही। उसके इनकार न करने को ही भाई ने ‘स्वीकार’ समझ लिया और आगे सब कर डाला। … उसे जैसे छुटकारा मिल गया!
रमेश बुद्धिमान था। हरफनमौला था। सैंको सिल्क मिल्स के प्रोसेसिंग विभाग में चीफ टेक्निशियन था। पद अच्छा था। भविष्य में अच्छे प्रॉस्पेक्ट्स् थे। दोनों ने परस्पर परिचय कर लिया। स्वभाव, आदतों से अवगत कराया। इस उम्र में और इन हालातों में दोनों को समझौता करना जरूरी था। उसके लिए दोनों ने मन बना लिया था। एक-दूसरे का साथ निभा पाएंगे, इस निर्णय पर पहुंच चुके थे, दोनों। उसने रमेश की ड्रिकिंग, स्मोकिंग के बारेमें कुछ नाराजगी व्यक्त की थी। पर उस समय मम्मी ने कहा था,
‘अरे, कुछ भी कहो, आखिर है तो पुरुष ही न! उस पर, घर में अकेला! आत्मीयता से, अपनेपन से देखनेवाला कोई भी नहीं। मन…शरीर बहलाने के लिए कोई तो साधन होना चाहिए न!… हो जाएगा धीरे-धीरे कम। मालूम…जिन लोगों में रहना पड़ता है, जिनके साथ काम करना पड़ता है उनकी खातिर भी कुछ चीजें करनी पड़ती हैं!’
‘हंऽऽ…’ वह बोली। शेखर को किसी चीज का शौक न था।… उसने भी वचन दिया था, ‘अपनी आदतें कम करने का प्रयत्न करूंगा।’ इतने साल की आदतें। शरीर को, मन को। एकदम भला कैसे छूटेगीं? ऋता ने कभी विरोध नहीं किया था। कई बार तो वह खुद उसे ‘कंपनी’ दिया करती। पर तब सबकुछ सीमित था। ऋता के जाने के बाद ड्रिंक लेना ‘प्लेझर’ तक सीमित न रहकर एक आदत बन गयी थी। वह समझ रहा था पर इलाज न था।… मन बेकाबू हो गया कि सारा अकेलापन विस्की के पेग में डुबो देना! राहुल को, बजाए होस्टल में रखने के, घर में रखा होता तो आदतों पर जरा अंकुश होता। पर घर में कोई नहीं। राहुल पर नजर रखनेवाला, उसकी देखभाल करनेवाला। रमेश की शिफ्ट-ड्यूटी।आखिर होस्टल में रखना ही सुरक्षित, श्रेयस्कर लगा। … वही तो सबकुछ है। उसकी देखभाल ठीक से होनी चाहिए!
ऋता चली गयी, इस कारण से देह की भूख थोड़े ही न समाप्त हो जाएगी? कब तक बाहर जाएंगे ? उसमें से कुछ कॉम्प्लिकेशंस…!
धीरे-धीरे राहुल बड़ा होगा। समझदार होगा। लोग तरह-तरह की बातें करने लगेंगे, अपने बारेमें…। उसकी बजाए…दोबारा विवाह…बतौर एक समझौता…और उसके एक मित्र ने रखा हुआ शैला का प्रस्ताब उसने स्वीकार कर लिया।दोनों समदु:खी…भुगते हुए…!
भीमसेन की एल. पी. समाप्त हो गयी। ‘रंग कर रसिया आओ अब…’ गुनगुनाते हुए उसने दरवाजा बंद किया। कदम भारी हो चुके थे। पर कभी न कभी तो भीतर जाना ही था…! विगत दो-तीन वर्षों में धुंधली पड़ रहीं शेखर की यादें इस घर में प्रवेश के बाद, विशेषकर पिछले पंदरह दिनों से, फिर आने लगी थीं। मानो, उनकी चपेट में आ गयी थी वह! अच्छा हुआ, राहुल ने क्षणमात्र के लिए भी रमेश को अपने से दूर नहीं होने दिया। वह अपनी भावनाओं में खोयी रह सकी। अपितु अब वह पल निकट आ चुका है। यद्यपि शेखर की छाया कस कर पकड़ रही है, ऐसा उसे लगने लगा।
उसने बेडरूम में प्रवेश किया। उसकी आहट पाते ही रमेश मे अपनी ‘गरुड कथा’ एक ओर डाल दी। सिगरेट का टुकड़ा मसलकर ऐश-ट्रे के हवाले कर दिया। टेबल-लैम्प बुझाकर नाइट-लैम्प जला लिया। उसे अपने समीप खींचा। उसके मुंह से आती शराब की तीव्र गंध और उसमें मिली हुई सिगरेट की तेज तमाकू की दुर्गंध से उसे उबकाई-सी आने लगी। उसने अनजाने में ही गर्दन घुमा ली। ‘मैंने फिजूल इतनी जल्द हामी भर दी’, वह सोचने लगी।
‘ऋता कितनी उत्कटता से पास आया करती…ज्वार में उठी लहर की भांति लुटा दिया करती थी खुद को। सबकुछ सराबोर…!
जबकि यह ऐसी… बुझी-बुझी…बर्फ की तरह ठण्डी …चेतना शून्य…
वह भी बुझता…बुझता चला गया। उसकी ओर पीठ करके सो गया। मेरा निर्णय गलत तो नहीं न हो गया, यह सोचते हुए पुन: पुरानी यादों में खो गया। ऋता के साथ विवाह होने के बाद के पहले साल की उसकी यादों में खो गया…हमेशा की तरह!
मूल लेखिका – -उज्ज्वला केळकर
पता – वसंतदादा साखर कामगारभवन के पास, सांगली 416416
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भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈