डॉ . प्रदीप शशांक
☆ ठगी ☆
(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा भारत के लोकतन्त्र के महापर्व “चुनाव” की पृष्ठभूमि पर रचित कटु सत्य को उजागर करती है। )
“काय कलुआ के बापू, इत्ती देर किते लगाये दई । वा नेता लोगन की रैली तो तिनै बजे बिला गई हती ना । दो सौ रुपैया तो मिलइ गए हुइहें?”
रमुआ कुछ देर उदास बैठा रहा, फिर उसने बीवी से कहा – “का बताएं इहां से तो वो लोग लारी में भरकर लेई गए थे और कही भी हती थी कि रैली खतम होत ही दो सौ रुपइया और खावे को डिब्बा सबई को दे देहें, मगर उन औरों ने हम सबई को ठग लऔ। मंत्री जी की रैली खतम होवे के बाद ठेकेदार ने खुदई सब रुपया धर लओ और हम सबई को धता बता दओ । हम ओरें शहर से गांव तक निगत निगत आ रए हैं । लौटत में बा लारी में भी हम औरों को नई बैठाओ । बहुतै थक गए हैं । आज की मजूरी भी गई और कछु हाथे न लगो,अब तो तुम बस एकइ लोटा भर पानी पिलाए देओ – ओई से पेट भर लेत है ।”
रमुआ की बीवी ऐसे ठगों को बेसाख्ता गाली बकती हुई अंदर पानी लेने चली गई ।
सत्यता को उजागर करी हुई कथा
लघुकथा आपको पसंद आयी , इस हेतु बहुत बहुत आभार ।